Friday, January 29, 2010

कोई जाने या ना जाने लेकिन तुम जानते हो की तुम्‍हारा होना मेरी ज़िंदगी में ऐसे है, जैसे धरती पर कई सूरज एक साथ जगमगाते हो...ऐसे की जैसे कई चाँद अपनी ठंडक से मेरी रूह को सकून देते हो...ऐसे की जैसे जैसे कई जूगनू मेरे आँगन में दमकते हो...ऐसा जैसे सुहागन के माथे पर कई सिन्दूरी कण चमकते हो...ऐसा की जैसे जूही के फूलों के कई गजरे महकते हो...ऐसा की जैसे जाड़ों के मौसम में लोग धूप तापते हो...ऐसा की जैसे बारिश की पहली फुहार में बच्चे नहाते हो...ऐसा की जैसे गाँव में सावन में झूले पड़ते हो...ऐसा की जैसे दुल्हन के हाथों में मेहँदी के फूल रचते हो...ऐसा की जैसे ओंस की शबनमी बुँदे गुलशन को भिगोते हो...ऐसा की जैसे दुनिया की भीड़ में बच्चे माँ के आँचल में छिपते हो...ऐसा की जैसे कई गुल एक सेहरा में खिलते हो...ऐसा की जैसे पहले प्यार में दो दिल धड़कते हो...ऐसा की जैसे दूर कहीं धरती और गगन मिलते हो...और मिल कर कभी ना बिछड़ेंगे ये वादा भी करते हो...लेकिन नहीं जानती की तुम्हारा होना मेरे लिए जितना बड़ा सच है...क्या तुम्हारे लिए भी है...शायद नहीं...तभी तो मैं तुम्हारी हो कर जी रही हूँ...और तुम केवल होने के अहसास के साथ वही खड़े हो...जहाँ से हमारे प्यार का सफ़र शुरू हुआ था... अर्चना...

Wednesday, January 27, 2010

ये लो जिंदगी की शाम भी आ गई और अभी तो जीवन में कितना कुछ होना बाकि है... अभी तो कहना था तुमसे बहुत कुछ...सुनना था तुमसे बहुत कुछ...कुछ प्यार की बातें...कुछ तकरार की बातें...जाना था तुम्हारे साथ वहां... जहाँ एक नदी थी...जिसके पार जाना था...पहाड़ी की हरियाली पर तुम्हारे साथ फिसलना था.... एक बार सुदूर जंगल के एकांत में जोर से तुम्हारा नाम पुकारना था....तुम्‍हारी गर्दन में अपनी बाहें डाले तुम्‍हारी पीठ पर लटक जाना था....अचानक पीछे से आकर तुम्‍हारी आँखों को मूंद लेना था... अपनी उँगलियों से गीली रेत पर तुम्हारा नाम लिखना था...सुरमुई शाम को चुपचाप चट्टान पर बैठ समंदर की लहरों को गिनना था... तुम्हारी हूँ...तुम्हारी रहूंगी हमेशा इस एहसास में जीना था...दुनिया की इस भीड़ में सहम कर तुम्हारी हथेली थामे बस यूँ ही गुज़ारना था...तुम्हे यूँ ही बिना मकसद टकटकी बांधे घंटो देखना था...अपने भीगे बालों के छीटों से तुम्हारी उस फाइल को भिगोना था...जिसका बहाना ले कर मुझे तुम तडपाते थे... और तुम्हे सुख के सितारों से जड़ी कुछ यादें देनी थी ...और निरंतर उस मोड़ तक साथ चलना था....जहाँ से हमारी राहें जुदा हुई थी ...और हम देर तलक एक दुसरे से सिर्फ अलविदा कह रहे थे...इस आस में की हम दोनों में से कोई तो किसी को रोकेगा...कहेगा मत जाओ...लेकिन हमारे अहम् ने हमे कहने से रोक लिया...और हम जुदा हो गए....और देखो ना ये जीवन भी कमबख्त इस रफ़्तार से गुज़रा....कि ऐसा कुछ न हुआ जीवन में...जो सोचा था...जो जीना था...और अब ये लगता है की कितना कुछ होना बचा रह गया। और अब ये जिंदगी की शाम भी आ गई...अर्चना...

Tuesday, January 26, 2010

अजनबी से मोड़ हैं यहाँ...बेगानी सी है रहगुज़र...चले जा रहे हम बेसाख्ता से...ले के अपनी ख्वाहिशों का लश्कर...जो भी हो लेकिन इस सफ़र का है अपना मज़ा यारों...इस में कुछ दूरियों से हुई है नजदीकियां... तो कुछ नजदीकिया बन गई हैं दूरिया...कुछ रूठ गई है परछाइयां...और कुछ टूटे है मेरे ख़्वाबों के मंज़र...चले जा रहे हम बेसाख्ता से...ले के अपनी ख्वाहिशों का लश्कर...इस सफ़र में थोड़ी सी रौशनी भी हैं...थोडा सा अँधियारा भी...थोड़ी सी मुफलिसी हैं...तो थोडा सा मनचाहा भी...थोड़ी सी नींदे है इस में...थोडा सा हैं रतजगा...और थोड़ी सी है खट्टी-मीठी यादों की सहर...चले जा रहे हम बेसाख्ता से...ले के अपनी ख्वाहिशों का लश्कर...इस सफ़र में थोडा गम है...और थोड़ी सी है खुशियाँ भी...थोड़ी सी मेहरबानियाँ भी हैं...थोडा सा प्यार भी है...और थोडा सा है बेवफाई का भी कहर ...चले जा रहे हम बेसाख्ता से...ले के अपनी ख्वाहिशों का लश्कर... अर्चना...

Monday, January 25, 2010

जिंदगी के सारे रंग गुम गए हैं शायद...तभी तो तेरी तस्वीर धुंधली हो गई हैं...बीते कल की जड़ें कमज़ोर हो गई है शायद...तभी तो यादों की टहनी शाख से टूट गई हैं....धागे तेरी प्रीत के टूट गए हैं शायद...तभी तो प्यार की माला बिखर सी गई हैं...राहों में तेरी यादों के दीये बुझ गए हैं शायद...तभी तो जिंदगी मेरी भटक सी गई हैं...मेरी पलकों की क़ैद में आंसू कसमसा गए हैं शायद...तभी तो आँखों में एक चुभन सी भर गई हैं...मौसम की तरह तू बदल गया हैं शायद...तभी तो बहार आ कर भी नहीं हैं...मेरे अहसास अब मर गए हैं शायद...तभी तो क़यामत का अब मुझे डर नहीं हैं... अब चाहे रहगुज़र में तुम मिलो ना मिलो...मिल गई तुम्हारी बेवफाई अब हमे कोई डर नहीं हैं....अर्चना...

Sunday, January 24, 2010

तुम चंचल निर्झर सा झरना...मैं एक ठहरी सहमी सी नदी...दोनों की हैं विपरीत दिशा...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम उन्मुक्त आकाशीय विहग...मैं धरती का एक भोला मृग...दोनों की हैं रफ़्तार अलग...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम हो गगन का चमकता चाँद... मैं हूँ धरा का सहज चकोर...हम में तुम में अंतर कितना...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम सूरज की तपिश में नहाये हुए...मैं चाँद की शीतलता से सजी...हम दोनों की हैं तासीर जुदा...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम कहते ना बांधो रिश्तों को...मैं कहती...मैं जीती रिश्तों में...ना मैं तोड़ सकूँ...ना तुम जोड़ सको...हम साथ चलें तो कैसे चलें...अब डर हैं यही कल हो ना हो...अरमान कभी पूरे हो ना हो...छोडो ये मैं तुम का झगड़ा...कुछ तुम भी चलो...कुछ मैं भी चलूँ...फिर शायद कोई भी कह ना सके...हम साथ चलें तो कैसे चलें....अर्चना...

Wednesday, January 20, 2010

कुछ बरसो पहले चला था एक कारवां...जो आज तक बदस्तूर जारी हैं लेकिन...अब उस कारवां में बस एक ही मुसाफिर बचा हैं....और वो हैं मेरा एक नन्हा सा वजूद...वो वजूद जो बिखरा तो कई बार लेकिन...फिर भी आज तक कायम हैं...शायद अब भी मंजिल को पाने की एक छोटी सी उम्मीद कहीं सांसे ले रही हैं ऐसे की जैसे....कोई ठन्डे पानी का झरना किसी सहरा में बहता हो ...की जैसे कोई कश्ती किसी तूफ़ा से लडती हो...की जैसे कोई दीये की लौ तेज़ हवाओं में टिमटिमा रही है ऐसे की जैसे कह रही हो तूफ़ा से....ऐह तूफ़ा तू चाहे जितने जतन कर ले...मेरा ये नन्हा सा वजूद...और मेरी नन्ही सी उम्मीद हमेशा रहेगी कायम...क्यूंकि मजिल के उस पार...कोई हैं जो मेरी मंजिल हैं...वो मेरी जिंदगी हैं...मेरी रौशनी हैं...मेरी ख़ुशी...मेरा विश्वास हैं वो...वो कभी तो मिलेगा मुझे...क्यूंकि मेरे वजूद की एक सच्ची आस हैं वो... अर्चना...
ठहर ऍह जिंदगी...अभी कई दर्द हैं बाकि...बाकि हैं कई धोखे...और कई ज़ख्म हैं बाकि....वैसे एक बात पूंछू तुझसे...ये तेरा कैसा फलसफा हैं...की कई ठोकरे खा कर भी...तू बदस्तूर चलती हैं...ना रूकती हैं...ना झुकती हैं...ना थमती हैं...ना थकती हैं...ना तेरी ये रफ़्तार कम ही होती हैं...बता ना ये कैसा जुनू हैं तेरा...ये कैसी वहशत हैं...तेरे हर कदम पर वहशत हैं...तेरी हस्ती में दहशत हैं...फिर भी तू बिना रुके...क्यूँ चली जा रही हैं...क्या अब भी कोई सफ़र हैं बाकि...आरी ओ बावरी....ज़रा तो ठहर...पीछे मुड कर तो देख...बीते दिनों में क्या खोया हैं तुने...और क्या पाया हैं...वो देख कुछ सुख के लम्हे...कुछ रिश्ते बिखरे से...कुछ अरमा टूटे से...कुछ यादें सहमी सी...कुछ आंसू गिले से...कुछ सूखी सी हंसी...कुछ यारों के धोखे...कुछ रूखे से किस्से...एक बाबुल अंगना...वो अम्मा की बातें...एक प्यारा सा बचपन...एक सहमा सा तन-मन... ये सब तुझे बुलाते हैं...तू पहले इन्हें संजो तो ले...फिर चाहे तो आगे बढ़ जाना...क्यूंकि जान गई मैं की... अभी तेरा एक सफ़र बाकि हैं...जहाँ और दर्द हैं...और ज़ख्म हैं...और इम्तेहा बाकि हैं...तेरी बिखरी सी...टूटी सी सही...कुछ और सांसे बाकि हैं...अर्चना

Tuesday, January 19, 2010

समंदर पर मेरा एतबार तो देखो ... कागज़ की कश्ती पर सफ़र कर रही हूँ ... अब इससे मेरा हौसला कहो ...या कहो तूफ़ान से लड़ने का दम ...भरी बरसात है लेकिन ...सूखी रेत का एक महल बना रही हूँ ...अब इससे मेरा नाज़ कहो ...या कहो मेरा एतबार खुद पे ...ज़ख्म जिनसे मिले है ...उसी को अपना बना रही हूँ ...क्यूंकि लोग कहते है ना... प्यार पत्थर को भी पिघला देता है ...तो मैं उसी पावन प्यार से एक पत्थर को पिघला रही हूँ ...नहीं जानती की मेरी ये कोशिश... कभी कामयाब होगी या नहीं...लेकिन ये हौसला...ये एतबार खुद पे...यही तो मेरी पहचान है...बस इसी के लिए जीए जा रही हूँ...

Friday, January 15, 2010

रंग बदलते संसार में...जीवन की तेज़ रफ़्तार में....यादें तुम्हारी मेरी धरोहर...मुफलिसी के इस बाज़ार में...कितनी मुश्किलें...कितनी उलझाने...हर पल एक नया संघर्ष हैं लाई...लेकिन तुम्हारी यादें मन में...एक नया हौसला भी लाई...अब यही हौसला मेरे जीने का आधार हैं...तुम नहीं साथ तो क्या हुआ...तुम्हारी यादों की धरोहर तो मेरे साथ हैं...जानते हो अब जिंदगी की राह में... अंधेरों का मुझे डर नहीं...क्यूंकि मुझे पता है...तुम्हारी यादों के ये छोटे -छोटे जुगनू... मुझे रौशनी दिखायेंगे...और इसी रौशनी के सहारे... मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचाएंगे...और जानते हो मेरी मंजिल क्या है...मेरी मंजिल है...जीवन भर यूँ ही... तुम्हारी इस अनमोल...बेमिसाल...और जान से भी प्यारी... यादों की इस धरोहर को संजोये रखना...अर्चना....

Thursday, January 7, 2010

शब्दों के बुने जाल में फंसी ये जिंदगी...कितनी निः शब्द हैं...ये अहसास तब हुआ जब किसी के शब्दों के बाणो से निः शब्द हुई ये जिंदगी...अब इसके अहसास भी निः शब्द...इसके जज़्बात भी निः शब्द...इसका बोलना भी निः शब्द...इसका सुनना भी निः शब्द...इसका हंस ना भी निः शब्द... इसका क्रंदन भी निः शब्द...और तो और इसके शब्द भी निः शब्द... और अब हसरत यही हैं की इन्ही सब निः शब्द ध्वनियों की गूँज उसके कानो में भी पड़े... और उसे अहसास हो की उसके शब्दों के बाणों ने किसी का जीवन निः शब्द कर दिया हैं...औरतब वो कुछ पल निः शब्द हो जाये... तो मेरी ख़ामोशी को कुछ शब्द मिल जाये... और मैं उस से कह दूं की प्यार को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं हैं...वो तो निः शब्द हैं...अर्चना दुबे (दमोहे)
शब्दों के बुने जाल में फंसी ये जिंदगी...कितनी निः शब्द हैं...ये अहसास तब हुआ जब किसी के शब्दों के बाणो निः शब्द हुई ये जिंदगी...अब इसके अहसास भी निः शब्द...इसके जज़्बात भी निः शब्द...इसका बोलना भी निः शब्द...इसका सुनना भी निः शब्द...इसका हंस ना भी निः शब्द... इसका क्रंदन भी निः शब्द...और तो और इसके शब्द भी निः शब्द... और अब हसरत यही हैं की इन्ही सब निः शब्द ध्वनियों की गूँज उसके कानो में भी पड़े... और उसे अहसास हो की उसके शब्दों के बाणों ने किसी का जीवन निः शब्द कर दिया हैं...औरतब वो कुछ पल निः शब्द हो जाये... तो मेरी ख़ामोशी को कुछ शब्द मिल जाये... और मैं उस से कह दूं की प्यार को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं हैं...वो तो निः शब्द हैं...

Tuesday, January 5, 2010

मेरे इर्द -गिर्द घूमता हैं वो एक साया है...जो हर दम मेरे साथ रहना चाहता हैं... जहाँ मैं जाती हूँ...वो पीछे-पीछे आता हैं....क्यूंकि वो साया मेरी ही परछाई है... जो कभी मुझसे जुदा होना नहीं चाहती... लेकिन हर दम रूप बदलती है जैसे...सुबहा दुगनी...शाम चौगनी...दोपहर में सिकुड़ी हुयी...और अंधेरे में गुम होती हुई... मेरे अन्दर सिमट जाती हैं...और कहती हैं...बस कुछ देर का अँधेरा हैं...फिर रौशनी होगी...और हम साथ होंगे...मैं मुस्कुराती हूँ...और कहती हूँ...ये दिलासा मुझे मत दो...मैं अंधेरों में भी जीना जानती हूँ...मुझे तुम्हारी ज़रुरत नहीं...तुम्हे मेरी ज़रुरत हैं...तुम कल फिर लौट के आओगे...क्यूंकि मेरी वहज से तुम्हारा वजूद हैं...और यही सच हैं...यही सच हैं...