Sunday, February 28, 2010

सब रंगे रंगबिरंगे रंगों से...मैं एक प्रीत के रंग...सब कहे होली भाई होली...मैं कहूँ... मैं आज हो ली उनके संग...सब कहे तू बावरी भई री ...का तूने आज पी ली है भंग...मैं कहूँ मोहे प्रीत धुन लागी... और जागी नयी उमंग...इत उत डोलू बावरी सी...जैसे डोले है पतंग...मन हुआ दीवाना मोरा...और जागी नई तरंग...सुन ओ सखी री ...अब ना डार मो पे कोई रंग...अब तो रंगी मैं पिया के रंग में...हुई मोरी नेह अतरंग...अर्चना...
एक वक़्त था जब तुम कहते थे की मेरी नज़र मेरे दिल का आईना है...ये वो कह जाती हैं जो मेरी ज़बा नहीं कह पाती...हाँ याद है मुझे की... इसी की गिरफ्त में आ कर... तुमने मुझसे इजहारे मोहब्बत किया था...हाँ इसी से तुम्हे बड़ी उल्फत थी...हाँ यही तो तुम्हारी जिंदगी थी...और इन्ही में तुमने मेरे दर्द की तस्वीर देखी थी...मेरे अहसास...मेरे जज़्बात को महसूस किया था...लेकिन कुछ दिनों से ये तुम मुझसे नज़रें क्यूँ चुरा रहे हो...क्या ये मेरी नज़र का भ्रम है...या फिर तुम्हारी ही नज़रें बदल गई है...सुनो ये नज़रों का खेल अब बंद भी कर दो...और कह भी दो ना...की अब तुम्हारे लिए मेरी मुहब्बत...मेरी चाहत... मेरी हसरत...मेरी उमंग...मेरी धड़कन...मेरे अरमान...मेरे ख़्वाबों की ताबीर...की अब कोई गरज नहीं है...हाँ कह दो सच मैं बुरा नहीं मानूंगी...बल्कि मैं तो अपनी ही नज़रों को ऐसे झुका लूंगी...जैसे ये कभी तुम्हारी तरफ उठी ही ना हो...क्यूंकि ये मेरी नज़र है...वो नज़र जो मेरे दिल की जुबा है...मेरे दिल का आईना है...और तुम ही तो कहते हो ना... की आईना कभी झूठ नहीं बोलता...अर्चना...

Friday, February 26, 2010

ना जाने क्यूँ खामोशियाँ दे रही है सदा...की आज तू निशब्द हो जा और सुन ले... अपनी जिंदगी के उस अनकहे अहसास को...जो आज किसी को याद करके... तेरी आँखों के ज़रिये बदस्तूर बह रहे है...वो जो तेरी यादों में बसता है लेकिन...तेरी जिंदगी में नहीं...वो जो तेरी आँखों में बसता है लेकिन... तेरे नजारों में नहीं...वो जो तेरे दिल में बसता है लेकिन...तेरी धड़कन में नहीं... वो जो तेरे पास हो कर भी तेरे पास नहीं...वो जो अब तेरे अहसास नहीं...अब तेरे जज़्बात नहीं...अब तेरे लम्हात नहीं...ना ही वो तेरी कायनात है...फिर भी वो कुछ है...जो तुझे शब्दों के साथ भी निशब्द कर देता है...वो गुजरी जिंदगी का एक लम्हा है...जो तुझे भीड़ में भी तनहा कर देता है...तो आज उसी को एक मौन श्रृद्धांजलि दे दे...उसे एक भावभीनी तिलांजलि दे दे...ताकि कल कोई ख़ामोशी तुझे सदा ना दे सके...और तू निशब्द आंसुओं की ज़ुबानी ना बोल सके...क्यूंकि तेरी जिंदगी तेरे शब्द है...और वो गुज़रा लम्हा अब निशब्द है...अर्चना....

Wednesday, February 24, 2010

डाल-डाल टेसू खिले है...आया फागुन मधुमास...प्रकृति भी जैसे कर रही...पिया मिलन की आस...तन-मन हर्षित...गाल गुलाबी...और निखरा है रंग...ऐसा जैसे पिघला सोना...और धूप का अंग...लगता है सुहागे सा होगा...किसी का प्रणय प्रसंग...और किसी पर चढ़ जाएगी... प्रीत की मीठी भंग...फिर होगा अबीर गुलाल से...किसी का आँचल सतरंग...फिर डोलेगा मन मतवाला...लेकर नई उमंग...फिर हर गली मोहल्ले में... खेला जायेगा रासरंग...और फिर सतरंगी बोछारों से... पुलकित होगा नेह अतरंग...और फिर ये देख जब मुस्काएगा...वो चंचल सा अभिसार...हाँ तब मेरे स्मित अधरों पर होगी प्रीत की बोली...सुन ओ सखी री...आज फागुन के काँधे चढ़ कर आई... मेरी प्यार की पहली होली...अर्चना...
सावन हो या फागुन...दोनों बड़े मनभावन...पर दोनों ही एक टीस दे जाते है...चाहे कहीं भी रहो इस महीने में... अपने बड़े याद आते है...रहो बाबुल के अंगना...तो याद आते है सजना...और गर रहो सजना के द्वारे...तो याद आये है बाबुल प्यारे...क्या करून...कैसे सहूँ...कुछ समझ में नहीं आता...ओ रे विधाता...तुने बनाया ये कैसा नाता...बता ना क्यूँ हम अपनों के साथ नहीं रह पाते है... अरे जन्म तो कहीं पाते है...और जन्मो के नाते कहीं और होते है...इसी कशमकश में निकल जाता है सावन...और फागुन...और फिर रह जाती है मन में वही टीस...की क्यूँ बाबुल और साजन के आँगन में थे इतने फासले...की जिन्हें तय करने में जीवन की सब ऋतुएं बीत गई...अर्चना...

Tuesday, February 23, 2010

काश ऐसा खुशियों का ऐसा कोई मंज़र आये...ग़म मेरी बस्तियों से दूर निकल जाये...मैं बन जाऊ एक नन्हा सा बच्चा...और मां की गोद फ़िर से मुझे मिल जाये...मैं उसके आँचल से लिपट कर फिर खिलखिलाऊ...उसकी लोरियों की धुन सुन कर चैन से थोडा सो जाऊ...वही मेरा धर्म हैं ये जान कर सजदे में अपना सर झुकाउ...हाँ कुछ पल के लिए ही सही अपने बचपन में फ़िर से लौट जाऊ...और देखू की जब मेरी शरारत से माँ रूठ कर कितनी सुन्दर लगती है...तो थोडा सा उसे गुस्सा दिलाउ...फिर दे के अपने नाज़ुक मासूम अधरों का चुम्बन...उसके चेहरे पर खुशियों की सौगात लाऊ ...उसके उसके हाथो से मीठी सी दुध रोटी खाऊ...और पी कर पानी उसके हाथों से... बरसो की अपनी प्यास बुझाऊ ...और फिर आखिर में उसके आँचल से...अपने मुंह को पोंछ कर वो चमक ले आऊं...जो इस दुनिया की आपाधापी में कहीं खो सी गई है...हाँ ये सच है की माँ के बिना जिंदगी के चेहरे की चमक खो सी गई है... अर्चना...
पता नहीं क्यूँ... तुम्हारा इंतज़ार करने का मन होता है... कभी किसी फूलों भरे पेड़ की छाया में... कभी तपती सुलगती धूप के वक्त...तो कभी ठंडी झील के किनारे...तो कभी हलकी सुरमुई शाम के वक्त....सच कहूँ तो उन क्षणों में पंछियों को बताना होता है तुम्हारे बारे में... जब वे पेड़ पर बैठे मुझसे इंतज़ार करने का सबब पूछते हैं...और बेचारे शाम के वक्त भी यही सवाल करते है ...जब वे उड़कर अपने घरों में जाते हैं...हाँ सच तब भी वो यही जानना चाहते हैं मुझसे... की तुमसे मुलाक़ात मेरी हुई कि नहीं... और तब उनकी ये मीठी सी हमदर्दी....तुम्हारा ही बंधाया धीरज सी लगती है...वो धीरज...जो तुम अक्सर मुझे बंधाया करते हो...ये कह कर की तुम्हारा इंतज़ार ना करूँ...लेकिन ना जाने क्यूँ तुम्हारा इंतज़ार करने का मन होता है.... अर्चना...
कहाँ रखूं अपनी उदास स्मृतियों का चमकता धारदार हीरा...डर लगता है कहीं तेरे वो अहसास कट गए...तो फिर हम उदास कैसे होंगे...अर्चना...

Sunday, February 21, 2010

मन के विशाल आँगन में...मेरे कुछ नन्हे नटखट से अहसास...यू ही कभी कभी खेलते नज़र आते है...सच कहूँ...तो कभी-कभी मेरा दिल भी इनके साथ खेलने को मचलता है...जी करता है...इनके साथ खूब हुल्लड़ मचाऊ...खुद ही रूठ जाऊ...खुद ही मान जाऊ...खुद से झगडू...फिर हारू और जीतू...थोडा हंसू...हंसाऊ...थोडा अंखियों से नीर बहाऊ ... कुछ खट्टे...कुछ मीठे बैर चखू...बिन कारण नाचू...गाऊ ...और इस दुनिया से बेख़बर अपने मदमस्त से बचपन के मासूम लम्हे साथ लिए...इनके पीछे भागूं...और उन्हे समेट लूँ अपने अरमानो के आँचल में ...लेकिन क्या करूँ...जितना इन अहसास को अपने दामन में समेटना चाहूँ...ये कमबख्त उड़ -उड़ जाते है...ठीक उस तितली की तरह...जो इस फूल से उस फूल अपने रंग फ़िज़ाओ में छोड...फुर्र से उड़ जाती है कभी हाथ न आने के लिए...और मैं अपने मन के आँगन में खड़ी रह जाती हूँ तनहा...एक नए अहसास की आस लिए ...अर्चना...

Friday, February 19, 2010

एक मीठी सी याद

कल शब् यूँ ही बैठे-बैठे तुम्हारी एक बात याद आ गई...और बस फिर क्या था...शब् ऐसे कटी की जैसे सदियाँ एक लम्हे में गुज़र जाती है...मन यूँ खुशियों से भर गया...की सारा आलम ही खुशनुमा नजारों से भर गया...जानते हो जब सुबह की शबनम में नहा कर मेरा वजूद मेरे सामने आया...तो सूरज ने उसे पहला सलाम किया...और उसकी शोख़ चंचल किरणों ने मेरे गीले बालों को जिस लम्हा छुआ...वो बेसाख्ता सा हँस दिया...और उसकी इस हंसी ने मेरी मुस्कान को सात रंगों से भर दिया...और आज मेरी बेरंग जिंदगी में खुशियों का इन्द्रधनुष लहरा गया...अर्चना...

Thursday, February 18, 2010

बीते लम्हों का हिसाब

कल मेज़ की दराज़ से कुछ पन्ने मिले...जो मैंने फाड़ दिए थे अपनी उस डायरी से...जिस में तुम्हारे साथ बिताये लम्हों का हिसाब लिखा था....मैंने देखा की उन पन्नों में अब भी सांस लेती हैं...मेरी कुछ अधबनी कविताएं....कई अधूरे से शब्द...कुछ अनमनी सी उपमाएं...कुछ नन्ही सी स्मृतियां...कुछ टूटे से अरमान...कुछ ख्वाब अधूरे से...कुछ हसरतें बिलखती सी...दो-चार ख़ुशी के लम्हे भी थे ...और हाँ कुछ जज़्बात मिले जो अपनी अंतिम सांस की कगार पर थे...और मिले कुछ जूही के सूखे फूल...जो उन पन्नो से लिपटे हुए थे...ठीक ऐसे...जैसे तुम्हारी कुछ भूली-बिसरी सी यादें...जो जिंदगी की मेज़ के उस दराज़ में महफूज़ है...जिसे मैं कभी खोलना नहीं चाहती...लेकिन आज जब ये डायरी के पन्ने मिल गए...तो सोचती हूँ की उस दराज़ को खोल कर उन यादों को इन पन्नो के साथ विसर्जित कर दूँ...ताकि कल कोई और दराज़ जब खुले...तो कोई ऐसा पन्ना ना मिले...जिस पर उन लम्हों का हिसाब हो...जो लम्हे सदियाँ बीत जाने पर भी नहीं बीते...अर्चना...

Wednesday, February 17, 2010

एक भरपूर जिंदगी

कौन जीता है सच के दायरे में यारों...क्यूंकि एक सच जिसने ये साबित कर दिया है... की आज की जिंदगी एक झूठ का एक पुलिंदा है..जिसके सहारे इंसा अपनी जिंदगी का सफ़र तय करता है...लेकिन धीरे-धीरे ये जाना की ये भी पूरा सच नहीं है...क्यूंकि इस जिंदगी के सफ़र में कई लोग ऐसे भी मिले है...जो सच का दामन थामे अपने ख़्वाबों को टूटते देखते है...लेकिन फिर भी उम्मीद का साथ नहीं छोड़ते...क्यूंकि वो जानते है की झूठ के साये में जीने वाला... अपने हर ख्वाब को एक लम्हे में पूरा तो कर लेता है...लेकिन फिर भी उसकी जिंदगी सतही कहलाती है...और उन में शिद्दत नहीं होती की वो सच का दामन थाम ...जिंदगी के गहरे सागर से वो मोती खोज लाये...जिसे लोग संतोष कहते है...और जिसके सहारे सच्चा इंसा हर दिन एक नया ख्वाब देखता है...बेशक वो अगली सुबह टूट जाये...लेकिन फिर भी आस की डोर थामे वो सच के पथ पर निरंतर चलता है...या सच कहे तो वो असल मायने में जिंदगी जीता है...हाँ अब हम कह सकते है की कुछ लोग ऐसे है...जो सच के दायरे में जीते है...और जी भर के जीते है...अर्चना...

Tuesday, February 16, 2010

सुनो मेरे आंसूंओं से तुम बिलकुल परेशां मत होना...क्यूंकि इनके बहने की वजह तुम नहीं हो...और ना ही तुम्हारी कोई खता नहीं है...बस वो तो कुछ कांच के ख्वाब थे आँखों में,वही टूट कर चुभ गए है...सुनो मेरी ख़ामोशी से तुम बिलकुल परेशां मत होना...क्यूंकि इसके मौन की वजह तुम नहीं हो...और ना ही तुम्हारी कोई खता है...वो तो कुछ अनकहे शब्द थे...जो मेरे गले में रुंध गए है...सुनो तुम मेरी उदासी से बिलकुल परेशां मत होना...क्यूंकि इसके आने की वजह तुम बिलकुल नहीं हो...और ना ही तुम्हारी कोई खता है...बस वो तो एक अहसास का झरोखा टूटा था...जहाँ इसने चुपके से बसेरा बना लिया है ...और हाँ सुनो तुम मेरी इस निशब्द सी हस्ती से परेशां मत होना...क्यूंकि इसके वजूद की वजह तुम हरगिज़ नहीं हो...और ना ही इस में तुम्हारी कोई खता है...वो तो मेरे माज़ी के उन बीते लम्हों का हिसाब है...जो वक़्त के यहाँ गिरवी पड़े है...हाँ सच तुम मेरे जज़्बात मेरे हालात...मेरे ख्वाबों के बिखरने की वजह नहीं हो...वो तो बस मेरे अरमानो के दामन का एक कोना फटा है...जहाँ से एक-एक करके मेरी जिंदगी के ये अनमोल मोती बिखर गए है...और हाँ ये बिलकुल सच है...की ना तुम कोई वजह हो...और ना ही तुम्हारी कोई खता है...अर्चना...
अहम् फैसला...
मेरी जिंदगी ने आज एक अहम् फैसला लिया...उसने आज मुझे हर ग़म से आज़ाद किया...जिसकी ख़ुशी ने मेरे लिए आज पलकों का एक कोना ख़ाली किया...और उसे अश्कों से फ़िर भर दिया...और धीरे से मेरे कान में कहा...की जाओ मैंने तुम्हे हर उस जुर्म से बरी कर दिया...जो तुमने मुझे हँसाने के लिए किये थे...अब तुम आज़ाद हो सदा के लिए....जाओ जिधर तुम्हारा जी चाहे...चाहो तो तुम जागो...या फिर सो जाओ...या फिर खिलखिला कर मुझ पर हंसो...मैं उफ़ तक नहीं करुँगी...क्यूंकि मेरा दामन अब रीता है...और अब मेरे अश्कों का सैलाब सूख गया है...वजह...वजह बस इतनी सी है की अब मैंने ख़्वाब देखना बंद कर दिया है...और मेरे अरमानो के कोमल पंख लिए मेरा वजूद का भोला सा पंछी...हकीकत की सख्त धरातल पर उतर आया है...अर्चना...

Monday, February 15, 2010

सोचा था एक दिन जब तुम मेरी बातों को समझोगे...तब मेरी भी खुशियों का चढ़ेगा सूरज...और उसकी आग ग़म के सर्द के बादलों को ग़ुबार कर देगी...और बहने लगेगा सदियों से जमा हसरतों का सख्त दरिया...और मेरी नम पलकें सूख कर तुम्हे अपलक निहारेंगी...लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ...दिन का सूरज तो तो चढ़ा पर ना ग़म के बादल छटे...ना अरमानो का कोहरा पिघला... उल्टे ग़म की सर्द हवाओं से सूरज की आग भी जम गयी...और उस सर्द हवा ने बुझा दिया दिन का सूरज...वो बेचारा भी उतरने लगा शाम के आगोश में...और मेरा दिन आज न शफ़क़... न गुलाबी... न जाफ़रानी...ना बसंती...ना फागुन के रंगों में सजा...वो तो बस नीला स्लेटी सा अजीब उदासियों के साथ बैठा है...तुम्हारी एक ख़ुशी के रंग में रंगने के लिए...इसलिए हो सके तो अब के फागुन में इसे रंग देना... अर्चना...

कुछ मीठे से सवाल

एहसास की धरती पर उगती है...कुछ अनकही सी बातें...कुछ भूली बिसरी यादें...वक्‍़त के कुछ गुज़रे लम्हे...कुछ अजन्मी सी भावनाएं...कुछ प्‍यार...कुछ छूटे हुए यार...कुछ धोखे...कुछ मेहरबानियाँ...और उस पर वो तल्‍ख़ मुस्‍कान लिए...कुछ प्यारे से दुश्मन...और मुझे सपनो के चाँद पर उड़ाते हुए वो तुम्हारे कुछ वादे....वो खुरदरी, पथरीली...नुकीली...बदहवास...हताश सी परछाइयाँ...वो थोड़ी सी रुसवाइयां...जब मेरे अतीत का कोहरा लिए छंटती हैं...तो स्‍मृतियों की आकृति में उठते हैं कई सवाल...जो मांगते है मुझसे जवाब...मेरे भीतर की रूह को झकझोर देते हैं...और कहते है...की क्या मैंने जो तुझे जिंदगी माना...और तुझ पर एतबार किया...क्या वो मेरा भ्रम था...या फ़लक से उतर आया वो चाँद था...जिसने मेरे एहसास की ज़मी पर तेरे ख्वाब बोये थे...जो आज अतीत के कोहरे में कहीं खो सा गया है...अर्चना....

Saturday, February 13, 2010

हाँ ये सच है गर तुम मानो तो...बहुत ज्यादा की हसरत नहीं ही मुझे...बस सुबह की थोड़ी सी गुनगुनी धूप हो... एक गरम चाय की प्याली हो ...और एक मनपसंद किताब गर मुझे मिल जाये...बस फिर तो मेरा दिल भी रूमानी हो जाये....हाँ बहुत ज्यादा की हसरत नहीं है मुझे...दोपहर की हल्की-हल्की सी गर्मी हो...आँगन में नीम के पेड़ की छाँव हो...और जिसके साये में अलसाया सा मेरा मन गर मिल जाये...बस तो फिर मेरा दिल भी रूमानी हो जाये...हाँ बहुत ज्यादा की हसरत नहीं है मुझे...सुरमुई शाम की ठंडी बयार हो...दिन भर के फसानो और अफसानो का भण्डार हो...और उस पर तुम्हारे आने की खबर गर मिल जाये....बस तो फिर मेरा दिल भी रूमानी हो जाये...हाँ सच बहुत ज्यादा की हसरत नहीं है मुझे...अर्चना...
होने वाली है सहर बुझती हुई शमाओं के साथ...और कुछ लम्हे ठहर ऐ ज़िंदगी...ज़रा तुझे सजदा तो कर लूं...क्यूंकि अब तक मैं खोया रहा तेरी रूमानियत में...तेरी बातों में...तेरे अहसास ओ जज़्बात में...भूल गया था की तू बस कुछ लम्हात की मेहमा है...और मैं तुझे बांधना चाहता था अपने अरमा की उस मुठ्ठी में...जिस में शायद तू रेत की मानिंद फिसल जाती है...लेकिन फिर भी गुज़ारिश कर रहा हूँ...क्यूंकि ज़िन्दा है अभी और अरमा मेरे...कुछ यादों के मुकाम अभी बाकि है...और बाकि है ख़्वाबों के सफ़र की थकान अभी...कुछ दर्द पुराने बाकि है...थोड़े से फ़र्ज़ भी बाकि है...और बाकि है थोड़े से क़र्ज़...बस इन सबका हिसाब चुका दूं...फिर तुझे सजदा कर मैं भी सो जाऊँगा बुझती हुई शमाओं के साथ... बस कुछ लम्हे ठहर ऐ ज़िंदगी...अर्चना...

Wednesday, February 10, 2010

माँ नर्मदा को मेरा नमन....

जिंदगी की आपाधापी में एक जुग बीत गया...और भटकी हुई लहर बन कर जब मैं तेरे पवित्र चरणों को छूने आई.... तो तूने माँ बन कर अपनी बाँहें फैला दीं...और दे दिया मुझे मुक्ति का वचन तूने...जबकि मैंने कभी तुझे कुछ ना दिया...बस जब भी दिया...तूने ही दिया...तेरे हरे भरे किनारों ने...तेरे निर्मल जल ने...हमारी क्षुधा को शांत किया...तूने हमे पावन किया...तू हमारी जन्मदायिनी है...हमारी मुक्तिदायिनी है....और हाँ....तेरे किनारे बसे एक घर में मेरी जड़ें है...वो मेरे पुरखें है...मेरी पहचान है वो...आज फिर उन्ही को याद कर के ...रंग बिरंगे फूलों और सुनहरी दिए की जोत जला...और आस्था- भक्ति का थाल लिए तेरे क़दमों में फिर आ बैठी हूँ.... और अब तुझसे यही चाहती हूँ...की जब तक ये सृष्टि है...तेरे आँचल में जिंदगियां यूँ ही पलती रहे...मेरी प्यारी नर्मदा मैया...तू यूँ ही बहती रहे....अर्चना....

Tuesday, February 9, 2010

यादों की पगडंडियों पर निरंतर चल रही हूँ मैं...शायद कोई मुझे मेरा पता बता देगा....

अनकही अभिव्यक्ति का मैं निशब्द स्वर हूँ मैं...शायद कोई मुझे कहीं सुन रहा होगा....

आज यादों की अजब चली है पुरवाई...बैठे-बैठे ना जाने क्यूँ आँख मेरी भर आई...याद आ रहा है वो मेरे बाबुल का आँगन...जहाँ बीता मेरा एक प्यारा सा बचपन...वो भोली सी अम्मा...वो प्यारी सी दादी...वो बाबुल की बाहें...वो दादा की गोदी...वो काका...वो मुन्नी...वो भैया...वो बहना...जहाँ हर रिश्ता लगता था जैसे सोने का गहना...वो पड़ोस की खिड़की...वो गली वो चोबारा...जहाँ आज जाने का मन है दोबारा...वो बचपन के साथी...वो गुडिया की शादी...वो कंचे रंग-बिरंगे...वो पतंग का मांझा....वो शरारत से बगिया की अम्बिया चुराना...वो चोरी के फूलों का गजरा बनाना...जब पकडे गए...तब वो रोना रुलाना...वो प्यारी सी मस्ती...वो नन्हे से झूठ...वो सावन का झूला...वो तीजे की मेहँदी...वो अम्मा की साड़ी पहन कर लजाना...आज कहीं वो बिखर सा गया है...क्यूंकि धीरे-धीरे ही सही...मेरा वो बचपन गुज़र सा गया है...अर्चना...

Monday, February 8, 2010

सुनो एक सच कहूँ तुमसे...अगर बुरा ना मानो तो...मुझसे ये दोहरी जिंदगी नहीं जी जाती...ये लबों पर ख़ुशी का नगमा...और दिल में ग़म का साज़...ये अजब ग़ज़ल है तुम्हारी...ये मुझसे गाई नहीं जाती...हाँ मैंने तुमसे वादा किया है की मैं खुश रहूंगी सदा ...और गाऊँगी खुशियों के तराने...लेकिन सच कहूँ...दे रही हूँ धोखा तुम्हे ये बात मुझसे अब सही नहीं जाती...एक गुज़ारिश हैं तुमसे गर मानो तो..तुम मेरी जिंदगी का फलसफा पढना छोड़ दो अब...क्यूंकि इसके पन्ने बड़े बेरतबीब है...और इसकी इबारत अब पढ़ी नहीं जाती...अर्चना....

Sunday, February 7, 2010

हाँ मैं खुश हूँ...बहुत खुश...क्यूँ...क्यूंकि कोई है...जो दूर हो कर भी मेरे साथ रहता है...वो मेरे दर्द का साथी है...वो मुझे हर दम याद करता है...और वो मेरी भी यादों में भी बसता है...जहाँ भी मैं जाती हूँ...वो यादों का साया बन कर हमेशा मेरे साथ चलता है...वो मेरे अहसास..मेरे जज़्बात में बसता है...मेरी जिंदगी का अटूट हिस्सा हैं वो...मेरी जिंदगी की कहानी एक नया सा किस्सा है वो...वो किस्सा जिसके बिना मेरी कहानी अधूरी है...हाँ उसी से तो मेरी ये दुनिया पूरी है...लेकिन एक बात कहूँ...वो सवाल बहुत पूछता है...कहता है...जब तुम खुश हो कर मुस्कुराती हो...तो तुम्हारी आँखों में ये पानी क्यूँ आता है...?...तो मैं कहती हूँ...की मेरी ख़ुशी की ज़मी यूँ ही नम नहीं है दोस्त...उस ज़मी के पास एक दर्द का दरिया है...जो सदियों से मेरी खुशियों के साथ बदस्तूर बहता है...बस यही वजह है की मेरे होंठों पर तो मुस्कान...और आँखों में पानी रहता है...हाँ मैं खुश हूँ...क्यूंकि कोई है...जो दूर हो के भी मेरे साथ रहता है....अर्चना...
क्यूँ कचोट रहा हैं किसी का मौन मुझे...जबकि उसके कहने का अब कोई अर्थ ना रहा...क्यूँ किसी की सांत्वना की हैं दरकार मुझे...जबकि मेरे दुःख का अब वो वक़्त ना रहा...दुखों से संभालना था...अब संभल ही गए हैं...फिर क्यूँ किसी से कोई आस रखे...जो साथ थे...वो साथ देते रहे...अब दर्द-ऐ-दिल इतना सख्त ना रहा...जिंदगी की धूप से अब कोई शिकवा ही नहीं मुझे... जितनी किस्मत में थी...उतनी छाँव मिल ही गई... हाँ ये बात और हैं...की जिससे छाँव की थी उम्मीद मुझे...वो ठूंठ बन गया...अब दरख्त ना रहा...क्यूँ कचोट रहा हैं किसी का मौन मुझे...जबकि उसके कहने का अब कोई अर्थ ना रहा...अर्चना....
मेरे आंसूंओं से तुम बिलकुल परेशां मत होना...क्यूंकि तुम्हारी कोई खता नहीं है...बस वो तो कुछ कांच के ख्वाब थे आँखों में,वही टूट कर चुभ गए है...अर्चना...

Saturday, February 6, 2010

मेरी कविता...मेरा जीवन...जो मेरे जीवन का आधार है...वो मुझसे अचानक रूठ गई...और चली गई दूर कहीं...और फिर कई दिनों तक नहीं हुई हमारी मुलाकात...मुझे लगा जैसे सब चले जाते है...वैसे ये भी चली गई है...और एक दिन खुद ही लौट आएगी...जैसे सब लौट आते है एक अंतराल के बाद...और आते ही तपाक से मिल भर लेगी बाँहों में...और धर देगी मेरी आँखों पर अपने नर्म और कोमल हाथ....और पूछेगी एक सहेली की तरह...बताओ कौन? और मैं चहक उठूंगी किसी बुलबुल की तरह...और कहूँगी तुम हो मेरी कविता...मेरी जिंदगी....और हाँ फिर झूट-मूठ रूठ कर पूछूंगी...की तुम क्यूँ चली गई थी कविता ! कहाँ रही तुम इतने दिन? मैंने तुम्हे कई महीनों, बरसों तक ढूंढ़ा...और अब मिली हो तो पहचानी नहीं जाती क्या यह तुम ही हो कविता? लेकिन अफ़सोस एक दिन जब वो मिली ...तो ना जाने क्यूँ हम एक दूसरे को पहचान कर भी पहचानने का अभिनय करते रहे...ना उसने मुझे गले ही लगाया...और ना ही मेरी आँखों को मूंदा ...और हाँ हम दोनों के बीच एक अजीब सा फासला था...जो कहने को तो एक पल का था...लेकिन उस में दूरियां सदियों की थी....और जिसे ना तो वो तय कर पा रही थी...और ना ही मैं....हम दोनों साहिल के उन दो किनारों की तरह एक दूसरे को बेवजह देखे जा रहे थे....और सोच रहे थे...की हाँ कुछ रिश्ते ऐसे होते है...जो ना बन पाते है..ना तोड़े जाते है...क्यूंकि वो दर्द के रिश्ते होते है...बस तब से ले कर आज तक मेरा और मेरी कविता के बीच यही दर्द का रिश्ता है...और हम ये रिश्ता बखूबी निभा रहे है....अर्चना....
कल शब् जब मैं अपनी जिंदगी में मिली...तो मैंने उस से पूछ ही लिया....की सुनो मेरी लाख कोशिशों के बाद भी तुम इतनी उदास क्यूँ हो...इतनी तनहा...इतनी अकेली क्यूँ हो...बोलो तुम ऐसी क्यूँ हो...तो वो हलके से मुस्काई...और बोली....हाँ मैं ऐसी ही हूँ...एक अनबूझ पहेली सी...खुद अपनी आप सहेली सी...एक अनाम अकेली सी...हाँ मैं तो ऐसी ही हूँ...तब मैंने भी हंस कर कहा...अच्छा और अपने बारे में कुछ और बताओ...तो वो बोली मैं किसी से बंधना गर चाहू तो ऐसे बंधू ...की जिसे वक़्त और हालात की धार ना काट सके...कटू तो ऐसे जैसे की जैसे किसी शाख से पत्ता टूट कर फिर कभी ना जुड़ सके...तो मैंने उस से कहा की तुम्हारे पास जीने के लिए क्या है...तो उसने कहा मेरे पास कुछ उसूल है...जो दुनिया की नज़र में एक दम बेकार है...और जिनकी वजह से फूल नहीं है मेरी राहों में...हाँ मेरी राह कुछ कंटीली सी है...कुछ पथरीली सी है...लेकिन मैं खुश हूँ....क्यूंकि मैं तो ऐसी ही हूँ...और ये कह कर वो फिर मेरे सपनो में खो गई...और जब मेरी आँख खुली तो पहली बार उसकी ये बातें सुन कर मुझे ये अहसास हुआ की सच... मैं तो यूँ ही परेशां थी....जबकि उसकी तो इस उदासी में भी कितना सकून है...क्यूंकि वो लाख अकेली...एक पहेली... और थोड़ी पगली सी है...लेकिन उसका दामन दागदार नहीं...उसकी आत्मा पर कोई बोझ नहीं...और अब ऐसा लगता है की मैं थोडा सा खुश हो कर ये कह सकती हूँ की मेरी जिंदगी अब उदास नहीं...अकेली नहीं...उसके उसूल उसके साथ है...हाँ मेरी जिंदगी अब किसी के साथ है...अर्चना...

Friday, February 5, 2010

यूँ तो कहने को जीवन तो पूरा हो गया लेकिन... मेरे वजूद की तस्वीर अभी अधूरी है...
और उसके अधूरेपन की वजह तुम हो...तुम जो चित्रकार थे मेरे जीवन के लेकिन उस में वो रंग ना भर सके...जिस से मेरी तस्वीर पूरी हो सके...लेकिन मैं हार नहीं मानूंगी...मैं उस अधूरी तस्वीर को पूरा करुँगी...हाँ मैं उस में सूरज़ का तेज़ भरुंगी...चाँद सी शीतलता से सजाउंगी...
पानी की निर्मलता से सहेजूंगी...और धरती की सहनशीलता से दूंगी....
फूलों सी कोमलता से करुँगी इसका श्रृंगार...भरुंगी कुछ रंग तितलियों से,
नीले मुक्त गगन से लूंगी थोडा सा विस्तार...और हाँ थोड़ी सी सिन्दूरी आभा लूंगी ढलती शाम से...
सोचती हूँ थोड़ी चमक ले लूँ सितारोंसे...और अंधेरों में भी टिमटिमाने की अदा जुगनुओं से ....थोड़ी सी हरियाली ले लूं खेतों की....झरने सी चंचलता ले लूं...और ले लूं नदी का वो ठहरापन तो क्या बात है .... अरे हाँ पहाड़ों से ले लूं स्थिरता...और ले लूं हवाओं की थोड़ी सी नमी...थोड़ी आग की तपिश भी ले लूं...और थोड़ी हरे पेड़ों की छाँव भी...और सजा लूं इनके रंगों से अपने वजूद की ज़मी को जो तुम्हारे दर्द से बेरंग हो गई है....और तब शायद ऐसा ना कह सकूं की यूँ तो कहने को जीवन पूरा हो गया लेकिन मेरे वजूद की तस्वीर अभी अधूरी है....अर्चना...

Thursday, February 4, 2010

आकांक्षाओं का ये मुक्त गगन...और इस में उड़ता मेरी आस का ये नन्हा सा पंछी...यूँ उडा जा रहा है...जैसे इस गगन को सिर्फ उसी के लिए बनाया गया है...वो देखो कैसे अपने परों को नापता...तौलता थोडा सहमता...थोडा किलकता...थोडा उन्मादी...थोडा फरियादी...थोडा सा खुशमिजाज़ भी है...तो थोडा सा ग़मगीन भी...उसे देख कर दिल को बड़ा सकूं मिल रहा है...अरे वो देखो...अभी-अभी वो थोडा सा बहका था...और देखो अभी वो संभल भी गया...और अब देखो...वो थक कर धीरे से... मेरे दिल की खिड़की पर आकर बैठ गया है...और जैसे ही मैंने उसे छूना चाहा...वो फुर्र से उड़ गया...और में उसकी परवाज़ को खडी एकटक देखती रही...उस परवाज़ को...जो मेरी ही देन है लेकिन...अब उस पर मेरा कोई हक़ नहीं...क्यूंकि अब आज़ाद है वो मेरी आस का नन्हा सा पंछी...अर्चना...
सच कहना...क्या आज इस महानगर के ५०० फीट के घर में तुम सुखी हो...या गाँव की उस खपरैल वाले घर की बड़ी शिद्दत से याद आती है ...जहाँ आँगन में नीम के पेड़ तले अम्मा चूल्हे पर मक्के की रोटी बनती थी...सच कहना... क्या आज टेबल पर बैठ कर ब्रेड बटर खा कर तुम सुखी हो...या उस मक्के की रोटी की बड़ी शिद्दत से याद आती है...जिस पर अम्मा घी गुड रख कर खिलाती थी...सच कहना...क्या आज लाखों की कार में बैठ कर ट्राफिक के बीच तुम खुश हो...या बाबा की वो खटारा साइकिल की बड़ी शिद्दत से याद आती है...जिस पर बैठ कर तुम गाँव के मेले में जाते थे....सच कहना... क्या आज तुम घर पर लौट कर वही सकून महसूस करते हो....या उन दिनों की बड़ी शिद्दत से याद आती है...जब सारा दिन खेत पर काम करके बाबा भी के चेहरे पर थकन नहीं होती थी... सच कहना...क्या आज तुम वक़्त को टुकड़ों में बाँट कर खुश हो...या उन लम्हों की तुम्हे बड़ी शिद्दत से याद आती है...जिनका हिसाब तुम्हे किसी को नहीं देना होता था...सच कहना सच कहना...क्यूंकि अगर सच कहोगे...तो कम से कम इस मुरझाये शहर में तुम्हारे चेहरे पर थोड़ी सी चमक तो आएगी...और उस चमक को देख कर शायद हम थोडा और जी लें...अर्चना...

Tuesday, February 2, 2010

उम्‍मीद तुम्हारे आने की तब क्यूँ आती हैं...जब कभी मैं सारी दुनिया से नाउम्‍मीद होती हूँ... जानती हूँ दिन अनगिनत बीते हैं तुम्हारे आने की उम्मीद में...और कई अधसोई उनींदी रातों के हिसाब भी हैं मेरे पास लेकिन...फिर भी उम्मीद का सपना मेरी आँखों में यूँ पल रहा है...जैसे खुली आँखों से मैंने तुम्हारे आ जाने का भ्रम पाला हो...और हकीकत की भोर होते ही वो सपने बन पंख लगा कर उड़ गए ऐसे ....की जैसे कई बरसों से मन का पंछी किसी पिंजरे में क़ैद था...नहीं नहीं मेरी उम्मीद इतनी कमज़ोर नहीं की वो मेरा साथ छोड़ दे...वो तो ऐसी है जैसे रातों में जलती आँखों में गहरी नींद हो...जैसे थकन और उदासी से टूटती देह में थिरकन हो...जैसे सन्‍नाटे में संगीत सी घुमड़ती कोई ग़ज़ल हो...जैसे मरुस्‍थल में जल की धारा मेह बन बरसती हो....जैसे समंदर की सीप में अनमोल कोई मोती हो...जैसे कैक्टस के बाग़ में गुलाब खिले हो...जैसे दर्द में मिला सकून हो...जैसे परदेस में मिला कोई अपना हो...और वो अपना कोई और नहीं तुम हो...तुम जो मेरी उम्‍मीद हो...मेरी विश्वास हो...मेरी जिंदगी हो...मेरी श्वास हो...तो चलो आज मैं तुम्ही से पूछती हूँ...क्या मेरी उम्‍मीद जो मेरी मोहब्बत है कभी कभी पूरी भी होगी ...या वो कमबख्त तुम्हारी जिद जो मेरी सौत है वो जीत जाएगी... अर्चना...

Monday, February 1, 2010

“पलकों ने बनाया था एक शामियाना की जिसमें… आज चंद आंसूओं ने चुपके से ली थी पनाह…और ये सोच कर उस में बनाया था बसेरा…की वक़्त आने पर बह के वो भी बताएँगे अपना हुनर… लेकिन हम भी कुछ कम हुनरमंद नहीं यारों….आंसू हो या हो गम…या हो कोई दर्द भरी चुभन…हर अहसास को दिल में जज़्ब करने की अदा पाई हैं…अपने हर आंसू पर मुस्कान की मीठी सी परत चढ़ाई हैं …अब चाहे कुछ भी हो ये आंसू ना आज़ाद होंगे …ये इसी तरह पलकों में क़ैद-ओ-आबाद होंगे …इन् पर लगायेंगे हम मुस्कान का ऐसा पहरा …चाह कर भी ये हमारा साथ ना छोड़ पाएंगे …इन्हें अब वही बसर करना होगा जहाँ मेरे अहसास हैं …मेरे जज़्बात हैं …मेरा दर्द हैं …जो मेरी विरासत हैं …क्यूंकि मैं जानती हूँ की इनके बिना ख़ुशी की कोई कदर नहीं होती…हाँ ये अनमोल खजाना हैं …मेरी पलकों के बेमिसाल मोती…” अर्चना...