Tuesday, February 9, 2010

आज यादों की अजब चली है पुरवाई...बैठे-बैठे ना जाने क्यूँ आँख मेरी भर आई...याद आ रहा है वो मेरे बाबुल का आँगन...जहाँ बीता मेरा एक प्यारा सा बचपन...वो भोली सी अम्मा...वो प्यारी सी दादी...वो बाबुल की बाहें...वो दादा की गोदी...वो काका...वो मुन्नी...वो भैया...वो बहना...जहाँ हर रिश्ता लगता था जैसे सोने का गहना...वो पड़ोस की खिड़की...वो गली वो चोबारा...जहाँ आज जाने का मन है दोबारा...वो बचपन के साथी...वो गुडिया की शादी...वो कंचे रंग-बिरंगे...वो पतंग का मांझा....वो शरारत से बगिया की अम्बिया चुराना...वो चोरी के फूलों का गजरा बनाना...जब पकडे गए...तब वो रोना रुलाना...वो प्यारी सी मस्ती...वो नन्हे से झूठ...वो सावन का झूला...वो तीजे की मेहँदी...वो अम्मा की साड़ी पहन कर लजाना...आज कहीं वो बिखर सा गया है...क्यूंकि धीरे-धीरे ही सही...मेरा वो बचपन गुज़र सा गया है...अर्चना...

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