आज मेरे मन का वो गुलमोहर खामोश है...
क्यूंकि आज तुम मेरे अहसास...
मेरी रूह से दूर कहीं अपना बसेरा बसा चुके हो...
और मैं अपने तन में विरह की ज्वाला लिए ...
और मन को शांत बना ये सोचती रह गई...
की समय की नदी में क्यूँ बह गए...
यूँ मेरे सपने एकांत...
और मेरी आँखों में विरह के नीर भर...
उन तैरते सपनों को डुबो कर गए नितांत...
जो कभी तुमने मुझे दिखाए थे...
जानते हो अब ना इसं में छवियाँ है प्यार की...
ना है कोई अहसास...
क्यूंकि मन में चुप्पियाँ बो कर...
मैंने इन्हें दे दिया वनवास...
और अब मन की सारी सीपियों में...
नहीं बचा कोई मोती...
हाँ सच मुरझा गए है सारे गुल इस दिल के...
अब नहीं बची है इन में कोई प्रीती...
लेकिन फिर भी हंस कर मन तुम्हे कह रहा अलविदा...
और हाँ इसीलिए शायद मेरे मन का वो गुलमोहर...
खामोश सा खड़ा बुन रहा है सन्नाटा...
अर्चना...