Monday, April 26, 2010

मेरे मन का वो गुलमोहर


आज मेरे मन का वो गुलमोहर खामोश है...

क्यूंकि आज तुम मेरे अहसास...

मेरी रूह से दूर कहीं अपना बसेरा बसा चुके हो...

और मैं अपने तन में विरह की ज्वाला लिए ...

और मन को शांत बना ये सोचती रह गई...

की समय की नदी में क्यूँ बह गए...

यूँ मेरे सपने एकांत...

और मेरी आँखों में विरह के नीर भर...

उन तैरते सपनों को डुबो कर गए नितांत...

जो कभी तुमने मुझे दिखाए थे...

जानते हो अब ना इसं में छवियाँ है प्यार की...

ना है कोई अहसास...

क्यूंकि मन में चुप्पियाँ बो कर...

मैंने इन्हें दे दिया वनवास...

और अब मन की सारी सीपियों में...

नहीं बचा कोई मोती...

हाँ सच मुरझा गए है सारे गुल इस दिल के...

अब नहीं बची है इन में कोई प्रीती...

लेकिन फिर भी हंस कर मन तुम्हे कह रहा अलविदा...

और हाँ इसीलिए शायद मेरे मन का वो गुलमोहर...

खामोश सा खड़ा बुन रहा है सन्नाटा...
अर्चना...

जिंदगी समझौतों में ऐसे उलझी की...

सपनो से रिश्ता टूट गया...

आँख तो अब भी तरसती है लेकिन...

मेरे नज़ारों ने ही साथ छोड़ दिया...

घर का बोझ उठाने वाले...

बचपन की तक़दीर न पूछ ओ ज़माने ...

क्यूंकि इधर बच्चा घर से निकला काम के लिए...

उधर माँ ने उसका खिलौना तोड़ दिया...

हाँ किसको फ़ुर्सत इस दुनिया में...

जो कोई ग़म की कहानी पढ़े या सुने ...

तभी तो भटक गए है शब्द मेरे...

और कलम ने मेरा साथ छोड़ दिया...

हाँ कई मंज़र देखे मैंने इस दुनिया की भीड़ में लेकिन...

जब मेरे ही अशार उसने अपने नाम से बेचे...

तो मैंने भी अपना रोज़ा तोड़ दिया...

हाँ आज मैंने उसकी मोहब्बत का हर पैमाना तोड़ दिया...

अर्चना...

Sunday, April 25, 2010

सूरज ढलने को है लेकिन...
अब तक तू मुझे क्यूँ आज़मा रही है जिंदगी...
सुन ज़रा बता तो और कितने इम्तेहान बाकि है...
और कितने इल्ज़ाम बाकि है...

तो जिंदगी बेदर्द मुस्कुरा के बोली...

सुन जितनी तेरी उम्मीदें है...

जितने तेरे अहसास है...

जितने तेरे जज़्बात है...

जितने तेरे सपने है...

जितने तेरे अपने है...

जितना तेरा यकीं है...

जितना तुझमें प्यार है...

बस उतने ही इम्तेहान बाकि है...

उतने ही इलज़ाम बाकि है...

तो मैंने भी हंस कर उसे कहा...

सुन एक बात तू कहना भूल गई है शायद...

जितने मेरे हौसले है बुलंद...

उतने इम्तेहान और इलज़ाम है बाकि...

हाँ सुन आ आजमा ले मुझे...

क्यूंकि उम्मीद...

अहसास...

जज़्बात...

सपने...

अपने...

यकीं...

और प्यार के साथ...

कुछ हौसले मेरे अब भी है बाकि...

अर्चना...

Friday, April 23, 2010

ये मेरा अपना मन मेरा दुश्मन है...
हाँ सच इसकी अपनी सोच से ही अनबन है....
आवाजों से इसे परहेज़ हैं यारों...
सन्नाटा इसके लिए जैसे मधुबन है...
हाँ दुख को इसने ओढ़ रखा है यारों...
और खुशियाँ इसकी उतरन है...
हाँ जिसके खातिर मैं अपनों से लड़ी...
हाँ वही तो अब इसका हमदम है...
हाँ मेरा अपना मन ही मेरा दुश्मन हैं...
हाँ सच इसकी अपनी सोच से ही अनबन हैं...
अर्चना...

Tuesday, April 20, 2010

प्यार की शाश्वत दुनिया...

चलो फिर एक बार फिर से चलते हैं उस दुनिया में...
जहाँ हम दोनों भूल जाये एक दूसरे के फेंके हुए दर्द...
और चुभते हुए अहसासों को...
क्योंकि जीवन जीने का नाम है...
गुज़ारने का नहीं...
और वैसे भी हमने बहुत गुज़ार लिया इसे...
यूँ ही एक साथ रहते हुए...
पर एक दूसरे के बिना...
लेकिन अब आओ इसे फिर से जिएँ...
उस सपने को जीवन्त करने के लिए...
जहाँ तुम्हारी खुशबू से भीगे ख़त थे...
और जिन्हें पढ़ते-पढ़ते भीग जाते थे मेरे नैना...
और हाँ जहाँ हमारे तन और मन कभी मिलते न थे...
पर हम जीते थे, एक दूसरे के लिए...
क्यूंकि तब एक जज़्बा था प्यार का...
प्यार के अहसास का...
और जहाँ सिर्फ़ प्यार ही रह जाता था...
और घुल जाते थे सारे वो अहम, अभिमान हमारे ...
जो आज हमारे बीच दीवार बन गए हैं...
इसलिए आओ चलें फिर एक बार फिर....
उस प्यार की दुनिया में...
क्यूंकि सुना है की प्यार कभी मरता नहीं...
मरते तो जिस्म है...
और ज़िंदा रहते हैं यही प्यार के प्यारे अहसास....
हाँ प्रिये प्यार और प्यार के इसी अहसास का नाम ही तो जीवन है...
और ये जीवन तब भी चलता है जब हम नहीं होते...
तो आओ ना फिर एक बार चलें...
उस शाश्वत जीवन की ओर...
अर्चना...

Thursday, April 15, 2010

निशब्द प्रेम

शब्दों के बुने जाल में फंसी ये जिंदगी... कितनी निः शब्द हैं... ये अहसास तब हुआ जब किसी के शब्दों के बाणो से... निः शब्द हुई ये जिंदगी... अब इसके अहसास भी निः शब्द... इसके जज़्बात भी निः शब्द... इसका बोलना भी निः शब्द... इसका सुनना भी निः शब्द... इसका हंस ना भी निः शब्द... इसका क्रंदन भी निः शब्द... और तो और इसके शब्द भी निः शब्द... और अब हसरत यही हैं... की इन्ही सब निः शब्द ध्वनियों की गूँज... उसके कानो में भी पड़े... और उसे अहसास हो की उसके शब्दों के बाणों ने... किसी का जीवन किस तरह निः शब्द कर दिया हैं... और तब वो शायद कुछ पल के लिए निः शब्द हो जाये... तो मेरी ख़ामोशी को कुछ शब्द मिल जाये... और मैं उस से कह दूं... की प्यार को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं हैं... वो तो निः शब्द हैं... वो तो निः शब्द हैं...अर्चना दुबे (दमोहे)
शब्दों के बुने जाल में फंसी ये जिंदगी... कितनी निः शब्द हैं... ये अहसास तब हुआ जब किसी के शब्दों के बाणो से... निः शब्द हुई ये जिंदगी... अब इसके अहसास भी निः शब्द... इसके जज़्बात भी निः शब्द... इसका बोलना भी निः शब्द... इसका सुनना भी निः शब्द... इसका हंस ना भी निः शब्द... इसका क्रंदन भी निः शब्द... और तो और इसके शब्द भी निः शब्द... और अब हसरत यही हैं... की इन्ही सब निः शब्द ध्वनियों की गूँज... उसके कानो में भी पड़े... और उसे अहसास हो की उसके शब्दों के बाणों ने... किसी का जीवन किस तरह निः शब्द कर दिया हैं... और तब वो शायद कुछ पल के लिए निः शब्द हो जाये... तो मेरी ख़ामोशी को कुछ शब्द मिल जाये... और मैं उस से कह दूं... की प्यार को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं हैं... वो तो निः शब्द हैं... वो तो निः शब्द हैं...अर्चना दुबे (दमोहे)

Thursday, April 8, 2010

कुछ पल का साथ

" कुछ अलग जीने की चाह...
कुछ नया कर दिखाने का जोश...
रोज़ नए मायने तलाशती जिंदगी...
रोज़ नए आयाम तलाशती हसरतें...
आपने आप में खोये कुछ अरमान मेरे...
अपने आप को तलाशते वो प्यारे से अहसास...
और हाँ नींद से बैर करती वो कुछ नाकाम कोशिशें...
और वो मुझे चिढ़ाती हुयी तुम्हारी कुछ हसीं यादें...
आज वक्त के साथ बहुत दूर जा रही है...
और मुझसे ये कह रही है की...
ये इतनी भागम भाग क्यूँ है...
आओ कुछ पल साथ बैठ कर...
काम का बोझ कुछ हल्का कर लें...
क्यूंकि ये वक्त छूट रहा हाथों से...
और हम भी दूर जा रहे है तुमसे...
और जानते हो ऐसा कह कर...
वो सब खिलखिलाकर हंस दिए थे...
और साथ मैं हंस पड़ी थी...
ये सोच कर की चलो तुम्हारे सिवा कोई तो है...
जो मुझे कुछ पल साथ बैठने की बात कर रहा है...
अर्चना...

Thursday, April 1, 2010

पगली का प्यार

जब से तुम मिले हो दुनिया ही बदल गई है मेरी...
अच्छा लगने लगा है ये जहाँ...
ये कुदरत...ये कायनात...
और दुश्मनों का भी वो रुखा सा बर्ताव भी ....
हां आग उगलता सा वो सूरज भी भाने लगा है...
और वो टूटी-फूटी डूबती सी नाव भी मन को...
एक जहाज़ का आभास देती है ...
और हाँ वो वृक्षों की पत्तियों पर...
सुखी सी कुरकुरी पत्तियाँ भी मन को बहार सी लगती है....
साथ ही भाने लगी है वो पतझड़ की अकड़ी सी टहनियां...
जिन पर अब कोई पंछी नहीं बैठता...
और हाँ वो नटखट सी नदी का अलबेला सा उफान...
जिस से डर कर अब इसके किनारों पर कोई नहीं आता....
अरे हाँ वो गर्मी की हवा का एक झोंका भी बड़ी ठंडक दे जाता है...
और साथ ही मन को भाता है...
वो चहकते से पंछियों का एक दम से चुप हो जाना...
और मेरे बारे में ये सोचना...
की इस पगली का प्यार भी कितना अजीब है...
इसे वो भी मन को भाता है...
जो दुनिया की नज़र में मनभावन नहीं है ...
अर्चना...