Thursday, October 28, 2010

और उम्र गुज़र गयी...अर्चना...

तेरे एक वादे पे उम्र गुज़र गयी अपनी...
और एक तू है की यकी करता ही नहीं...
अब मैं पशेमा हूँ की बाकि की उम्र किसके नाम करू...
ना वादा अपना...ना यकी अपना...
हाँ थोडा सा तेरा अहम् और मेरी थोड़ी सी जिद बाकि बची है...
सोच रही हूँ क्या काफी है बाकि की गुज़र के लिए...
फिर सोचती हूँ....
नहीं उसी वादे के नाम कर दूँ अपनी चंद सांसों को...
शायद उसकी तपिश तुम्हारे अहम् को पिघला दे...
और नेस्तनाबूद कर दे मेरी जिद को...
जिसने हम दोनों को जीने ना दिया...
और जिसने उम्र को गुज़र जाने दिया ऐसे...
की जैसे रेत फिसल गयी हो मुठ्ठी से...
अर्चना...