Monday, September 3, 2012

मैं संगीत हूँ...

“मैं संगीत हूँ....
मेरा कोई धर्म नहीं..
कोई मज़हब नहीं...
मेरी कोई जाति भी नही...
मैं किसी का गुलाम भी नहीं !
और मेरा कोई रंग रूप भी नहीं...
ना ही कोई मुझे बंधन में बाँध सकता है !
ना मुझे कोई भुला सकता हैं...
क्योंकि मैं तो सबकी ज़िन्दगी में शामिल हूँ...
उस इन्द्रधनुष की तरह...
जिसके सात रंग होते हैं ,
वो जीवन, जिस में सात वचन होते हैं...
दोस्तों मैं सात सुरों का संगम हूँ !
मेरे सेंकडों घराने हैं...
कई रूप है !
मैं कभी माँ की लोरी में,
तो कभी पिता की थपकी में ,
कभी ईश्वर के भजन में,
तो कभी अल्लाह की अजान में,
कभी चर्च की प्रार्थनाओं में...
कभी गुरुबानी की सदाओं मे...
मैं कभी कृष्णा की बांसुरी में भी हूँ..
और राधा के प्रेमगीत में हूँ...
बसता हूँ कभी सोहनी- महिवाल की सांसों में...
और कभी हीर-रांझा की धडकन में भी हूँ...
और अभी इस समय...
इस समय भी मैं आपके संग हूँ...
क्योंकि मैं ही तो “सुरों का दबंग” हूँ...
मैं मस्त मलंग हूँ...
खुशियों का अनोखा रंग हूँ...
तो आओ...
पा लो मुझे...
कर लो स्वीकार...
मैं तुम्हारा हूँ...
मैं संगीत हूँ...
Archana...
मै संगीत हूँ...
मैं ही तो ज़िन्दगी हूँ...
वो ज़िन्दगी जिसकी हर धडकन इक सरगम है...
सांसे सुरों का संगम है...
जो थोडी सी चंचल है...
थोडी सी मासूम भी...
और है इक अनोखी अदाकारी से भरपूर...
इसके हर लफ्ज़ में मानो शहद मिला हो...
और उसी की मिठास से लोग अपने सुरों को सजाते है...
वो इसके लम्हों मे जीते है...
इसकी गहराइयों मे उतर, इसकी उंचाइयों को छूते है...
वो इसकी हवाओं मे बह कर...
सारी दुनिया की खुशियाँ अपने दामन में सहेज कर..
अपने ख्वाबों को महसूस करते हैं...
वो ख्वाब जो पुरे होते है तो एक गीत बन जाते है...
एक ऐसा गीत जिसमें जज़्बातो का साज़ है...
खूबसुरत से अह्सास है....
और हर अह्सास जैसे एक सुरीला उत्सव है...
एक मस्ती का रंग है...
Archana

Sunday, March 18, 2012

माँ... " आज मेरे बेटे शिवम का जन्मदिन हैं, सो ये कविता उसके लिये हैं... "

तारों की जगमगाहट में चमचम करती थी...
वो होली की अनोखी रात...
हाँ चांद छुट्टी पर नही था उस दिन...
शायद वो जानता था कि तुम आ रहे हो...
जानते हो, दो कमरो के उस छोटे से घर में...
जब उठी थी हल्की सी प्रसव पीडा मुझे...
तुम्हारे पिता का हाथ थाम कर...
पैदल पहुंची थी अस्पताल मैं...
क्योंकि होली की मस्ती के बाद...
सारा ही आलम मदहोश सा था...
सडके सूनसान थी लेकिन...
मेरी दुनिया आबाद थी...
क्योंकि तुम जो आ रहे थे...
आज भी याद है मुझे...
वो वसई का अस्पताल...
जहाँ अधखुले दरवाज़े के बाहर...
घूम रहे थे तुम्हारे पिता और सोच रहे थे...
क्या होगा...
या होगी...
और इसके आने के बाद कैसा होगा जीवन...
कैसे जाउंगा मैं रोज़मर्रा के काम से
नौकरी करने....
छोड़ कर जाना होगा इसकी मां को...
किसी की देखरेख में...
अचानक मेरी चीख ने उनकी सोच पर लगाम लगा दिया...
उन्होने अधखुले दरवाज़े से मुझे देखा...
मैं तड़प रही थी बिस्तर पर,
पडोस की एक बुढ़िया बैठी थी कलाइयां भींचे....
लेकिन जब मेरी उस चीख में जब...
मिल गई तुम्हारे रुदन की ध्वनी...
सच ऐसा लगा जैसे बज उठी है...
मन्दिर की मधुर घंटियाँ...
और घुल गया ये जहाँ होली के रंग मे...
बसंती फूलों की गंध में...
यूं खोली थी आंखे तुमने...
पूरनमासी की गोद में...
जब नींद में खोई थी दुनिया...
रतजगा कर रहे थे तुम...
मेरे साथ चुपचाप...
और मैं सुन रही थी कि...
तुम्हारी आंखेँ मुझे हौले से कह रही थी...
माँ...