Thursday, September 19, 2013

मेरी मिल्कियत


ज़िन्दगी के हर पल...
हर अह्सास को संजो कर रखा है...
मैंने माँ की हर सीख को आंचँल में बाँध रखा है...
जब भी ज़रूरत होती हैं खर्च कर लेती हूँ...

इक यही तो मिल्कियत हैं जिसने मुझे अमीर बना रखा हैं..." (अर्चना)...

Tuesday, September 17, 2013

"काश वो एक बुरी लडकी होती..."

वो एक अच्छी लडकी...
ताउम्र अच्छी ही बनी रही...
संस्कारी...
सुशील...
सर्वगुण संपन्न...
शर्म-ओ-हया की एक जीती जागती मिसाल...
गजब का हौसला...
लेकिन सच कहें तो ये सब उसके लिये आसान ना था...
हर दिन उसे अपनी इच्छाओं से जंग लडनी पडती थी...
और फिर एक दिन...
वो अपने माँ-बाप और खानदान की इज्ज़त का भार लिये...
मन में अनगिनत सपनों का संसार लिये...
सोचती ही रह गई अपने भावी जीवन के बारे में...
और देखते ही देखते जीवन बीत गया...
नून- तेल-लकडी के हिसाब में...
रिश्तों की चौखट पर सजदे करते हुये...
और फिर जब एक दिन अचानक उसकी नज़र पडी आईने पर...
तो पाया कि जिन बालो को वो अपनी पसन्द से गुथना चाहती थी...
वो अब जूट की रस्सी से उलझे हैं...
बिलकुल उसकी ज़िन्दगी की तरह...
एक फीकी सी मुस्कान उसके चेहरे पर आई...
और अनायास मुहँ से निकल पडा...
"काश वो एक बुरी लडकी होती..."

(अर्चना...)

Sunday, September 15, 2013

जन्म से खानाबदोश ज़िन्दगी...

जन्म से खानाबदोश ज़िन्दगी...
जो एक बेटी...
बहन...
पत्नी...
माँ...
सास...
दादी...
नानी...
ऐसे कई रिश्तों के पडाव को पार करके...
कभी घर के किसी सुनसान कोने में...
कभी मन्दिर की सीढीयों पर...
तो कभी वृध्दाश्रम में आसरा तो पा जाती हैं...
लेकिन इसके चेहरे पर ना जाने कितने दुख...
ना जाने कितनी पीडाएं...
ना जाने कितने अहसास...
ना जाने कितनी अधूरी इच्छाओं का बोझ...
झुर्रियां बन कर खामोशी से उभरते हैं...
और अनायास एक सवाल करते है...
कि इतने रिश्तों की विरासत के बावजूद...
हर औरत जन्मजात खानाबदोश क्यों है...?
(अर्चना)

Sunday, September 8, 2013

कुछ वक़्त की तनहाई...

मैं कैद हूँ कई रूप में...
कई रिश्तों में...
कई दायित्वों में...
हाँ मैं कैद हूँ अपने आप में भी...
अरे नही ऐसा नही कि मैं रिहाई चाहती हूँ...
बस मैं तो कुछ वक़्त की तनहाई चाहती हूँ...