Wednesday, July 9, 2014

"ज़िंदगी गुलज़ार हैं..."

किराये के घर के एक कोने में बैठ...
ठिठुरते जाड़े में…
चिपचिपाती गर्मी में…
और बरसातों में
शांत हो पढ़ते हो तुम...
टांकते हो...
मेरी उम्मीदों के आँचल में…
अपनी मेहनत के बेहिसाब तारें...
और…
जब मैं तुमसे कहूँ कि मेरे बेटे...
कुछ देर ठहर जा...
तू अपने लड़कपन को तो जी ले...
तब तुम मुझे…
देते हो मेरी बीती हुई तन्हा जवानी का हिसाब…
याद दिलाते हो मेरी गुरबत में बीते पलों के अहसास...
जहां सिर्फ और सिर्फ समझौते थे जिंदगी के...
और आज भी उन्ही के साथ जी रही हूँ...
तुम्हारी माँ और बाप का अकेले फर्ज़ निभाते हुए...
लाख मुश्किलों के बावजूद जीते हुए...
इस आस में कि पढ़ लिख कर जब तुम पार करोगे...
इस अभाव की गहरी खाई को...
तब मेरे भी दिन बदल जाएंगे...
और मैं भी झूम के कहूँगी...
"ज़िंदगी गुलज़ार हैं..."
अर्चना

Sunday, May 25, 2014

रिक्त स्थान

तुम जिसे अपने सूने जीवन के रिक्त स्थान की पूर्ति समझ रहे हो...
वो पूरा कथासार हैं मेरी अपनी जिंदगी का...
और सुनो...उसमें कोई रिक्त स्थान नहीं हैं..
इसलिए तुम किसी और शब्दकोश को तलाश कर लो...
अपने उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए...
(अर्चना

Tuesday, May 6, 2014

हाँ बहती हवा सी हूँ मैं...

बहती हवा सी हूँ मैं मुझे थोड़ा और बह जाने दे
मुझमें कुछ मौसम और बदल जाने दे कि....
 
आज फिर जा रही हूँ सरहदो के पार बहुत दूर...
किसी सकून से लबरेज सरज़मीं पर...
जहाँ सितारे सजदा करते हैं तन्हा...
जहाँ रोशन होने को हैं उम्मीदों का चाँद...
वहाँ आज खुद से निजात पा लेने दे...

हाँ बहती हवा सी हूँ मैं, मुझे थोड़ा और बह जाने दे
मुझमें कुछ मौसम और बदल जाने दे कि....

आज फिर जा रही हूँ, जहाँ मेरे ख्वाबों की वादियाँ...
और राह तक रहे हैं कुछ अंजाने एहसास...
जहाँ रिश्तों की सुलगती आंच नहीं...
बस कुछ गुनगुनाती यादें है जहाँ...
वहाँ आज मुझे गुम हो जाने दे...

हाँ बहती हवा सी हूँ मैं, मुझे थोड़ा और बह जाने दे...
मुझमें कुछ मौसम और बदल जाने दे...
(अर्चना )

संबंध



आज पहले जैसे संबंध
नहीं रहे
पहले संबंध जैसे
मिट्टी के कुल्हड़ में रबड़ी...
जिनमें केसर सी खूशबू...
और ख़ालिस दूध सी शुद्धता...
लेकिन आज मिलावटी जिंदगी के
मिलावटी दूध में बनी...
ये बासी रबड़ी से संबंध...
जिसमें शुगर फ्री मिठास तो है
पर वो बात नहीं
जो पहले थी...
और हाँ अब कुल्हड़ भी नहीं रहे
हैं तो बस थर्मोकल की प्लेट...
और उसी की तरह हम भी बनावटी हो चले हैं
जो किसी का फोन उठाने से पहले...
सोचते हैं
कि
आज कौन-सा बहाना बनाना है (अर्चना)

Tuesday, April 29, 2014

कुछ सपने

मेरे मन की दरारों से
झांकते हैं कुछ सपने
दिमाग की पहरेदारी हैं...
लेकिन फिर भी चोरी से...
देख लेती हैं, मेरी रूह...
फिर मैं चाह कर भी छिपा नही पाती इन्हे...
महक जाते हैं ये मोगरे की तरह...
हालांकि इन से विचलित होती हैं
परम्पराएँ…
घायल होती हैं मर्यादाएं
तब मैं इन्हे मार देती हूँ...
मन के किसी कोने में...
लेकिन कमबख्त फिर
ये सपने जी जाते हैं...
और झाँकने लगते हैं
मन की दरारों से (अर्चना)
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कहो तुम कब आओगे...?

तुम कब आओगी...?
तुम्हारा ये सवाल कितना बेमानी हैं आज...
जब मेरे दिन का सूरज बुझ चुका...
जब मेरा वजूद धूल बन...
गलियों-गलियों भटक रहा...
और दिल पगडण्डी पर ख़ामोशी से...
सन्नाटे को आगोश में भींचे...
सहमा सा चल रहा...
और जब बहते हुये पानी में...
बह के भी मन मेरा प्यासा रहा...
तब तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि...
तुम्हारी अभिलाषाएँ मैं पूरी करूंगी...
वैसे सुनो मैंने तो इंतजार को...
कब का पूर्ण विराम लगा...
अपना लिया चिर विश्राम को...
अब मेरी बूढी हड्डियों को अग्नि देने...
कहो तुम कब आओगे...? (अर्चना )

Monday, March 24, 2014

यादों का शोर

वो कहते हैं, मैं खामोश सी लगती हूँ लेकिन...
मेरे वजूद में एक हलचल सी हैं...
कैसे कहूँ उनसे कि ये उनकी यादों का शोर हैं...
जिससे मेरे मन का कोना-कोना आबाद हैं... (अर्चना )