Thursday, April 15, 2010
शब्दों के बुने जाल में फंसी ये जिंदगी... कितनी निः शब्द हैं... ये अहसास तब हुआ जब किसी के शब्दों के बाणो से... निः शब्द हुई ये जिंदगी... अब इसके अहसास भी निः शब्द... इसके जज़्बात भी निः शब्द... इसका बोलना भी निः शब्द... इसका सुनना भी निः शब्द... इसका हंस ना भी निः शब्द... इसका क्रंदन भी निः शब्द... और तो और इसके शब्द भी निः शब्द... और अब हसरत यही हैं... की इन्ही सब निः शब्द ध्वनियों की गूँज... उसके कानो में भी पड़े... और उसे अहसास हो की उसके शब्दों के बाणों ने... किसी का जीवन किस तरह निः शब्द कर दिया हैं... और तब वो शायद कुछ पल के लिए निः शब्द हो जाये... तो मेरी ख़ामोशी को कुछ शब्द मिल जाये... और मैं उस से कह दूं... की प्यार को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं हैं... वो तो निः शब्द हैं... वो तो निः शब्द हैं...अर्चना दुबे (दमोहे)
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