इस तरह मेरी तरफ तुम्हारी बेरुखी को...
आज ख़त्म कर दूंगी हर दर्द के उस अहसास को...
जिसे दे कर तुम मुझसे प्यार का दावा करते हो....
फिर कोई बात नहीं गर....
रिश्तों की ये डोर मेरे हाथ से छूट गई...
मैं अपने बचे खुचे वजूद के साथ ही जी लूंगी...
कम से कम सड़क की भीड़ में...
यूँ अकेले रहने का अहसास तो ख़त्म होगा...
हाँ नहीं दिखाऊंगी तुम्हें...
अपने उन सवालों के ज़ख्म...
जो कभी किये थे मैंने लेकिन...
तुमने कभी उनके जवाब नहीं दिए...
और हाँ नहीं रखूंगी मेरे कंधों पर...
तुम्हारे प्यार के निशान...
क्यूंकि वैसे ही निशान....
तुमने औरों को भी दिए है...
हाँ मैं मिटा रही हूँ इन्हें...
दूर तक फैली हरी दूब की नर्मी से...
सुबह ओस की ठंडक से...
दुपहर को धूप की गर्मी से...
और शाम की सिन्दूरी आभा से....
धो रही हूँ तुम्हारे यादों के निशान...
क्यूंकि अब तुम मेरे राजदार नहीं रहे....
इतना सहज नहीं है .......यह सब कर पाना ......कुछ भी मिट नहीं पाता ......विद्रोह करना एक अलग बात है .....पर स्मृतियों को मिटा पाना ....संभव ही नहीं. तब क्या किया जाय ? यही तो यक्ष प्रश्न है .....सारी उठापटक ....सारा आक्रोश इसी प्रश्न के आसपास है .....क्यों न सड़े फूलों पर मातम के बजाय उन्हें किसी लता की खाद बना दिया जाय .....कम से कम ज़ो तरोई या लौकी लगेगी उस पर तो पूरा अधिकार होगा अपना !
ReplyDeleteआपका विद्रोह जायज है पर यादो से कैसे बचोगे।
ReplyDeleteभावमयी सुन्दर अभिव्यक्ति
विश्वास के संकट की प्रशंसनीय अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteपोस्ट की बात करू तो बेहतर। पर जज्बात की करू तो मैं भी कौशलेन्द्र जी से सहमत हुॅ।
ReplyDeleteप्रशंसनीय अभिव्यक्ति ।
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