Saturday, August 28, 2010

मेरी आशाएं...

सोच रही हूँ शाम ढलने से पहले बुहार दूँ...
अपने आँगन से कुछ निराशाएं क्यूंकि...
ख्वाब में ही सही कुछ आशाओं ने...
अपने आने की बात कही है...
हाँ उनके साथ कुछ पुरानी यादों को भी...
मैं बाहर का रास्ता दिखा दूँ क्यूंकि...
कब तक उन्हें मेहमान बना कर रखूंगी जबकि...
अब अतिथि देवो भव का ज़माना कबसे गुज़र गया है...
हाँ अब इस सच को स्वीकार करना ही होगा...
कि इस दुनिया में अहसास और जज़्बात की...
कोई कीमत नहीं है फिर भी...
इस दुनिया के बाज़ार में कुछ लोग बिना मोल बिकते है...
और हमे उनकी भीड़ में अपने आपको ढूँढना है...
और उन्ही कुछ आशाओं के साथ...
जो कभी भी ख़्वाबों में आ सकती हैक्यूंकि...
ख्वाब मेरे अपने है...
हाँ वही तो मेरे अपने है...
और हाँ आशायीं भी मेरी अपनी है...
और अब बस निराशाओं को पराया बनाना है...
सो सोच रही हूँ आज शाम ढलने तक ये काम कर ही दूँ...
क्यूँ कर दूँ ना...?
अर्चना