Tuesday, April 29, 2014

कुछ सपने

मेरे मन की दरारों से
झांकते हैं कुछ सपने
दिमाग की पहरेदारी हैं...
लेकिन फिर भी चोरी से...
देख लेती हैं, मेरी रूह...
फिर मैं चाह कर भी छिपा नही पाती इन्हे...
महक जाते हैं ये मोगरे की तरह...
हालांकि इन से विचलित होती हैं
परम्पराएँ…
घायल होती हैं मर्यादाएं
तब मैं इन्हे मार देती हूँ...
मन के किसी कोने में...
लेकिन कमबख्त फिर
ये सपने जी जाते हैं...
और झाँकने लगते हैं
मन की दरारों से (अर्चना)
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कहो तुम कब आओगे...?

तुम कब आओगी...?
तुम्हारा ये सवाल कितना बेमानी हैं आज...
जब मेरे दिन का सूरज बुझ चुका...
जब मेरा वजूद धूल बन...
गलियों-गलियों भटक रहा...
और दिल पगडण्डी पर ख़ामोशी से...
सन्नाटे को आगोश में भींचे...
सहमा सा चल रहा...
और जब बहते हुये पानी में...
बह के भी मन मेरा प्यासा रहा...
तब तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि...
तुम्हारी अभिलाषाएँ मैं पूरी करूंगी...
वैसे सुनो मैंने तो इंतजार को...
कब का पूर्ण विराम लगा...
अपना लिया चिर विश्राम को...
अब मेरी बूढी हड्डियों को अग्नि देने...
कहो तुम कब आओगे...? (अर्चना )