मेरे मन की दरारों से
झांकते हैं कुछ सपने
दिमाग की पहरेदारी हैं...
लेकिन फिर भी चोरी से...
देख लेती हैं, मेरी रूह...
फिर मैं चाह कर भी छिपा नही पाती इन्हे...
महक जाते हैं ये मोगरे की तरह...
हालांकि इन से विचलित होती हैं
परम्पराएँ…
घायल होती हैं मर्यादाएं
तब मैं इन्हे मार देती हूँ...
मन के किसी कोने में...
लेकिन कमबख्त फिर
ये सपने जी जाते हैं...
और झाँकने लगते हैं
मन की दरारों से (अर्चना)
झांकते हैं कुछ सपने
दिमाग की पहरेदारी हैं...
लेकिन फिर भी चोरी से...
देख लेती हैं, मेरी रूह...
फिर मैं चाह कर भी छिपा नही पाती इन्हे...
महक जाते हैं ये मोगरे की तरह...
हालांकि इन से विचलित होती हैं
परम्पराएँ…
घायल होती हैं मर्यादाएं
तब मैं इन्हे मार देती हूँ...
मन के किसी कोने में...
लेकिन कमबख्त फिर
ये सपने जी जाते हैं...
और झाँकने लगते हैं
मन की दरारों से (अर्चना)
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