Sunday, March 18, 2012

माँ... " आज मेरे बेटे शिवम का जन्मदिन हैं, सो ये कविता उसके लिये हैं... "

तारों की जगमगाहट में चमचम करती थी...
वो होली की अनोखी रात...
हाँ चांद छुट्टी पर नही था उस दिन...
शायद वो जानता था कि तुम आ रहे हो...
जानते हो, दो कमरो के उस छोटे से घर में...
जब उठी थी हल्की सी प्रसव पीडा मुझे...
तुम्हारे पिता का हाथ थाम कर...
पैदल पहुंची थी अस्पताल मैं...
क्योंकि होली की मस्ती के बाद...
सारा ही आलम मदहोश सा था...
सडके सूनसान थी लेकिन...
मेरी दुनिया आबाद थी...
क्योंकि तुम जो आ रहे थे...
आज भी याद है मुझे...
वो वसई का अस्पताल...
जहाँ अधखुले दरवाज़े के बाहर...
घूम रहे थे तुम्हारे पिता और सोच रहे थे...
क्या होगा...
या होगी...
और इसके आने के बाद कैसा होगा जीवन...
कैसे जाउंगा मैं रोज़मर्रा के काम से
नौकरी करने....
छोड़ कर जाना होगा इसकी मां को...
किसी की देखरेख में...
अचानक मेरी चीख ने उनकी सोच पर लगाम लगा दिया...
उन्होने अधखुले दरवाज़े से मुझे देखा...
मैं तड़प रही थी बिस्तर पर,
पडोस की एक बुढ़िया बैठी थी कलाइयां भींचे....
लेकिन जब मेरी उस चीख में जब...
मिल गई तुम्हारे रुदन की ध्वनी...
सच ऐसा लगा जैसे बज उठी है...
मन्दिर की मधुर घंटियाँ...
और घुल गया ये जहाँ होली के रंग मे...
बसंती फूलों की गंध में...
यूं खोली थी आंखे तुमने...
पूरनमासी की गोद में...
जब नींद में खोई थी दुनिया...
रतजगा कर रहे थे तुम...
मेरे साथ चुपचाप...
और मैं सुन रही थी कि...
तुम्हारी आंखेँ मुझे हौले से कह रही थी...
माँ...