Sunday, December 19, 2010

जब वो लड़की थी...

जब वो लड़की थी...
यूँ ही अपने संसार में...
भटकती थी...
दौड़कर चढ़ जाती थी...
उम्मीदों के पहाड़...
उछलकर आसमान तोड़ लाती...
आशाओं के तारे...
यूँ ही पेड़ की इस डाली से उस डाली...
चहकती थी बुलबुल की तरह...
कभी साइकिल...
तो कभी स्कूटर उठा...
पूरे शहर का चक्‍कर लगाती...
घर की छत से पैर लटकाकर
कैरी का अचार चुरा कर खाती...
पहाड़ी झरने-सी बहती...
चंचल हवा के झोको से उड़ कर...
चाँद को छू आना चाहती थी...
आसमान के सारे सितारे...
अपने दुपट्टे में सजाना चाहती...
सोचती थी....
जाएगी एक दिन दूर कहीं सजन के द्वार....
जहाँ दिन होगा चांदी का...
रात सोने की...
लेकिन...
जब उसकी उम्मीद टूटी तो पाया...
समझोतों की एक लम्बी फेहरिस्त में जहाँ...
वो बहू है...
पत्नी है...
माँ है...
और अब सास भी बन जाएगी....
लेकिन...
अब वो लड़की कुछ और नहीं चाहती...
ना धरती...
ना आसमान...
ना ही चाँद तारे...
ना ही सायकिल...
और ना स्कूटर की सवारी...
ना बुलबुल की तरह चहकना...
न कैरी का आचार खाना..
ना पहाड़ी झरने की तरह बहना....
ना चंचल हवा सा बहना...
वो तो बस चौराहे तक चली जाती कभी-कभी...
अपनी मन पसंद सब्जी लेने...
बस इतनी ही आज़ादी है उसे...
अब यही उसकी उडान है...
यही उसकी परवाज़ है...
अर्चना...

Thursday, December 16, 2010

अब तुम मेरे राजदार नहीं रहे...

नहीं अब पल भी नहीं सहूंगी...
इस तरह मेरी तरफ तुम्हारी बेरुखी को...
आज ख़त्म कर दूंगी हर दर्द के उस अहसास को...
जिसे दे कर तुम मुझसे प्यार का दावा करते हो....
फिर कोई बात नहीं गर....
रिश्तों की ये डोर मेरे हाथ से छूट गई...
मैं अपने बचे खुचे वजूद के साथ ही जी लूंगी...
कम से कम सड़क की भीड़ में...
यूँ अकेले रहने का अहसास तो ख़त्म होगा...
हाँ नहीं दिखाऊंगी तुम्हें...
अपने उन सवालों के ज़ख्म...
जो कभी किये थे मैंने लेकिन...
तुमने कभी उनके जवाब नहीं दिए...
और हाँ नहीं रखूंगी मेरे कंधों पर...
तुम्हारे प्यार के निशान...
क्यूंकि वैसे ही निशान....
तुमने औरों को भी दिए है...
हाँ मैं मिटा रही हूँ इन्हें...
दूर तक फैली हरी दूब की नर्मी से...
सुबह ओस की ठंडक से...
दुपहर को धूप की गर्मी से...
और शाम की सिन्दूरी आभा से....
धो रही हूँ तुम्हारे यादों के निशान...
क्यूंकि अब तुम मेरे राजदार नहीं रहे....

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Thursday, October 28, 2010

और उम्र गुज़र गयी...अर्चना...

तेरे एक वादे पे उम्र गुज़र गयी अपनी...
और एक तू है की यकी करता ही नहीं...
अब मैं पशेमा हूँ की बाकि की उम्र किसके नाम करू...
ना वादा अपना...ना यकी अपना...
हाँ थोडा सा तेरा अहम् और मेरी थोड़ी सी जिद बाकि बची है...
सोच रही हूँ क्या काफी है बाकि की गुज़र के लिए...
फिर सोचती हूँ....
नहीं उसी वादे के नाम कर दूँ अपनी चंद सांसों को...
शायद उसकी तपिश तुम्हारे अहम् को पिघला दे...
और नेस्तनाबूद कर दे मेरी जिद को...
जिसने हम दोनों को जीने ना दिया...
और जिसने उम्र को गुज़र जाने दिया ऐसे...
की जैसे रेत फिसल गयी हो मुठ्ठी से...
अर्चना...

Saturday, August 28, 2010

मेरी आशाएं...

सोच रही हूँ शाम ढलने से पहले बुहार दूँ...
अपने आँगन से कुछ निराशाएं क्यूंकि...
ख्वाब में ही सही कुछ आशाओं ने...
अपने आने की बात कही है...
हाँ उनके साथ कुछ पुरानी यादों को भी...
मैं बाहर का रास्ता दिखा दूँ क्यूंकि...
कब तक उन्हें मेहमान बना कर रखूंगी जबकि...
अब अतिथि देवो भव का ज़माना कबसे गुज़र गया है...
हाँ अब इस सच को स्वीकार करना ही होगा...
कि इस दुनिया में अहसास और जज़्बात की...
कोई कीमत नहीं है फिर भी...
इस दुनिया के बाज़ार में कुछ लोग बिना मोल बिकते है...
और हमे उनकी भीड़ में अपने आपको ढूँढना है...
और उन्ही कुछ आशाओं के साथ...
जो कभी भी ख़्वाबों में आ सकती हैक्यूंकि...
ख्वाब मेरे अपने है...
हाँ वही तो मेरे अपने है...
और हाँ आशायीं भी मेरी अपनी है...
और अब बस निराशाओं को पराया बनाना है...
सो सोच रही हूँ आज शाम ढलने तक ये काम कर ही दूँ...
क्यूँ कर दूँ ना...?
अर्चना

Tuesday, July 27, 2010

हाँ मैं जी लूंगी

उम्र के इस मुकाम पर अलविदा का अहसास भी कितना दर्द देता है लेकिन...
तुमने तो कल शब् मुझे वो दर्द दे ही दिया...
कोई बात नहीं दर्द तो दर्द ही सही कुछ तो दिया है तुमने...
कुछ तो ऐसा है मेरे पास ऐसा जिसके सहारे...
मैं अपनी यादों की किश्तों से अपनी जिंदगी का क़र्ज़ उतार लूंगी...
हाँ मैं जी लूंगी...

सुनो तुम मेरी फिक्र ना करना क्योंकि फिक्र इंसान की दुश्मन है....
और मैं नहीं चाहती की मेरी कोई चीज़ तुम्हारी दुश्मन बने...
क्यूंकि मैं तो एकतरफा प्यार और दोस्ती की वो जिंदा मिसाल हूँ...
जिसे तुम याद करना ना चाहो बेशक...
लेकिन अपने ज़ेहन के पिंजरे में एक परिंदे की तरह मुझे कैद ज़रूर रखोगे...
और हाँ मैं उसी कैद का अहसास कर के तुम्हे याद कर लूंगी...
हाँ मैं जी लूंगी...

हाँ मैं जी लूंगी

अर्चना

Sunday, May 16, 2010

एक चाहत जीवन की

कहाँ चल रहे हो तुम कंटीले शूल पर...
आ जाओ मेरी पनाहों में...
हाँ आ भी जाओ...
क्यूंकि मैंने तुम्हारी राहों में...
अपनी पलकों को बिछा दिया है ...
देखो अब राहों की उष्णता भी कम होने लगी है...
और हवाओं में भी कुछ नमी सी लगती है...
वो देखो उस मुक्त गगन ने भी ओढ़ लिया है श्याम आँचल...
क्यूंकि मैंने अपने नैनों में तुम्हारे लिए सावन सजा लिया है...
हाँ देखो ना वो अमावस की दुल्हन भी अब लरजने लगी उजालों से...
उसने तारों से अपना आँचल को सजा लिया है...
और भर दिया है असंख्य तारों से उन राहों को...
क्यूंकि मैंने अपने नैनों के दीपों को तुम्हारे लिए रोशन कर दिया है...
हाँ वो देखो सारा गुलशन भी अब महकने सा लगा है...
रात भी सज कर इतरा सी रही है...
हाँ वो चंदा भी शरमा कर बदलियों की ओंट में छिपने लगा है...
क्यूंकि तुम्हारे प्यार का काजल मैंने अपने नैनों में सजा लिया है...
हाँ आ भी जाओ मेरी पनाहों में...
क्यूंकि तुम्हारे लिए शूल नहीं मेरा प्यार है जीवन की वो ठंडी छाँव...
जिसके साये में तुम्हारी राह आसान हो जाएगी....
और मैं तुम्हे उस पर चलते देख कर थोडा और जी लूंगी...
अर्चना

Monday, April 26, 2010

मेरे मन का वो गुलमोहर


आज मेरे मन का वो गुलमोहर खामोश है...

क्यूंकि आज तुम मेरे अहसास...

मेरी रूह से दूर कहीं अपना बसेरा बसा चुके हो...

और मैं अपने तन में विरह की ज्वाला लिए ...

और मन को शांत बना ये सोचती रह गई...

की समय की नदी में क्यूँ बह गए...

यूँ मेरे सपने एकांत...

और मेरी आँखों में विरह के नीर भर...

उन तैरते सपनों को डुबो कर गए नितांत...

जो कभी तुमने मुझे दिखाए थे...

जानते हो अब ना इसं में छवियाँ है प्यार की...

ना है कोई अहसास...

क्यूंकि मन में चुप्पियाँ बो कर...

मैंने इन्हें दे दिया वनवास...

और अब मन की सारी सीपियों में...

नहीं बचा कोई मोती...

हाँ सच मुरझा गए है सारे गुल इस दिल के...

अब नहीं बची है इन में कोई प्रीती...

लेकिन फिर भी हंस कर मन तुम्हे कह रहा अलविदा...

और हाँ इसीलिए शायद मेरे मन का वो गुलमोहर...

खामोश सा खड़ा बुन रहा है सन्नाटा...
अर्चना...

जिंदगी समझौतों में ऐसे उलझी की...

सपनो से रिश्ता टूट गया...

आँख तो अब भी तरसती है लेकिन...

मेरे नज़ारों ने ही साथ छोड़ दिया...

घर का बोझ उठाने वाले...

बचपन की तक़दीर न पूछ ओ ज़माने ...

क्यूंकि इधर बच्चा घर से निकला काम के लिए...

उधर माँ ने उसका खिलौना तोड़ दिया...

हाँ किसको फ़ुर्सत इस दुनिया में...

जो कोई ग़म की कहानी पढ़े या सुने ...

तभी तो भटक गए है शब्द मेरे...

और कलम ने मेरा साथ छोड़ दिया...

हाँ कई मंज़र देखे मैंने इस दुनिया की भीड़ में लेकिन...

जब मेरे ही अशार उसने अपने नाम से बेचे...

तो मैंने भी अपना रोज़ा तोड़ दिया...

हाँ आज मैंने उसकी मोहब्बत का हर पैमाना तोड़ दिया...

अर्चना...

Sunday, April 25, 2010

सूरज ढलने को है लेकिन...
अब तक तू मुझे क्यूँ आज़मा रही है जिंदगी...
सुन ज़रा बता तो और कितने इम्तेहान बाकि है...
और कितने इल्ज़ाम बाकि है...

तो जिंदगी बेदर्द मुस्कुरा के बोली...

सुन जितनी तेरी उम्मीदें है...

जितने तेरे अहसास है...

जितने तेरे जज़्बात है...

जितने तेरे सपने है...

जितने तेरे अपने है...

जितना तेरा यकीं है...

जितना तुझमें प्यार है...

बस उतने ही इम्तेहान बाकि है...

उतने ही इलज़ाम बाकि है...

तो मैंने भी हंस कर उसे कहा...

सुन एक बात तू कहना भूल गई है शायद...

जितने मेरे हौसले है बुलंद...

उतने इम्तेहान और इलज़ाम है बाकि...

हाँ सुन आ आजमा ले मुझे...

क्यूंकि उम्मीद...

अहसास...

जज़्बात...

सपने...

अपने...

यकीं...

और प्यार के साथ...

कुछ हौसले मेरे अब भी है बाकि...

अर्चना...

Friday, April 23, 2010

ये मेरा अपना मन मेरा दुश्मन है...
हाँ सच इसकी अपनी सोच से ही अनबन है....
आवाजों से इसे परहेज़ हैं यारों...
सन्नाटा इसके लिए जैसे मधुबन है...
हाँ दुख को इसने ओढ़ रखा है यारों...
और खुशियाँ इसकी उतरन है...
हाँ जिसके खातिर मैं अपनों से लड़ी...
हाँ वही तो अब इसका हमदम है...
हाँ मेरा अपना मन ही मेरा दुश्मन हैं...
हाँ सच इसकी अपनी सोच से ही अनबन हैं...
अर्चना...

Tuesday, April 20, 2010

प्यार की शाश्वत दुनिया...

चलो फिर एक बार फिर से चलते हैं उस दुनिया में...
जहाँ हम दोनों भूल जाये एक दूसरे के फेंके हुए दर्द...
और चुभते हुए अहसासों को...
क्योंकि जीवन जीने का नाम है...
गुज़ारने का नहीं...
और वैसे भी हमने बहुत गुज़ार लिया इसे...
यूँ ही एक साथ रहते हुए...
पर एक दूसरे के बिना...
लेकिन अब आओ इसे फिर से जिएँ...
उस सपने को जीवन्त करने के लिए...
जहाँ तुम्हारी खुशबू से भीगे ख़त थे...
और जिन्हें पढ़ते-पढ़ते भीग जाते थे मेरे नैना...
और हाँ जहाँ हमारे तन और मन कभी मिलते न थे...
पर हम जीते थे, एक दूसरे के लिए...
क्यूंकि तब एक जज़्बा था प्यार का...
प्यार के अहसास का...
और जहाँ सिर्फ़ प्यार ही रह जाता था...
और घुल जाते थे सारे वो अहम, अभिमान हमारे ...
जो आज हमारे बीच दीवार बन गए हैं...
इसलिए आओ चलें फिर एक बार फिर....
उस प्यार की दुनिया में...
क्यूंकि सुना है की प्यार कभी मरता नहीं...
मरते तो जिस्म है...
और ज़िंदा रहते हैं यही प्यार के प्यारे अहसास....
हाँ प्रिये प्यार और प्यार के इसी अहसास का नाम ही तो जीवन है...
और ये जीवन तब भी चलता है जब हम नहीं होते...
तो आओ ना फिर एक बार चलें...
उस शाश्वत जीवन की ओर...
अर्चना...

Thursday, April 15, 2010

निशब्द प्रेम

शब्दों के बुने जाल में फंसी ये जिंदगी... कितनी निः शब्द हैं... ये अहसास तब हुआ जब किसी के शब्दों के बाणो से... निः शब्द हुई ये जिंदगी... अब इसके अहसास भी निः शब्द... इसके जज़्बात भी निः शब्द... इसका बोलना भी निः शब्द... इसका सुनना भी निः शब्द... इसका हंस ना भी निः शब्द... इसका क्रंदन भी निः शब्द... और तो और इसके शब्द भी निः शब्द... और अब हसरत यही हैं... की इन्ही सब निः शब्द ध्वनियों की गूँज... उसके कानो में भी पड़े... और उसे अहसास हो की उसके शब्दों के बाणों ने... किसी का जीवन किस तरह निः शब्द कर दिया हैं... और तब वो शायद कुछ पल के लिए निः शब्द हो जाये... तो मेरी ख़ामोशी को कुछ शब्द मिल जाये... और मैं उस से कह दूं... की प्यार को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं हैं... वो तो निः शब्द हैं... वो तो निः शब्द हैं...अर्चना दुबे (दमोहे)
शब्दों के बुने जाल में फंसी ये जिंदगी... कितनी निः शब्द हैं... ये अहसास तब हुआ जब किसी के शब्दों के बाणो से... निः शब्द हुई ये जिंदगी... अब इसके अहसास भी निः शब्द... इसके जज़्बात भी निः शब्द... इसका बोलना भी निः शब्द... इसका सुनना भी निः शब्द... इसका हंस ना भी निः शब्द... इसका क्रंदन भी निः शब्द... और तो और इसके शब्द भी निः शब्द... और अब हसरत यही हैं... की इन्ही सब निः शब्द ध्वनियों की गूँज... उसके कानो में भी पड़े... और उसे अहसास हो की उसके शब्दों के बाणों ने... किसी का जीवन किस तरह निः शब्द कर दिया हैं... और तब वो शायद कुछ पल के लिए निः शब्द हो जाये... तो मेरी ख़ामोशी को कुछ शब्द मिल जाये... और मैं उस से कह दूं... की प्यार को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं हैं... वो तो निः शब्द हैं... वो तो निः शब्द हैं...अर्चना दुबे (दमोहे)

Thursday, April 8, 2010

कुछ पल का साथ

" कुछ अलग जीने की चाह...
कुछ नया कर दिखाने का जोश...
रोज़ नए मायने तलाशती जिंदगी...
रोज़ नए आयाम तलाशती हसरतें...
आपने आप में खोये कुछ अरमान मेरे...
अपने आप को तलाशते वो प्यारे से अहसास...
और हाँ नींद से बैर करती वो कुछ नाकाम कोशिशें...
और वो मुझे चिढ़ाती हुयी तुम्हारी कुछ हसीं यादें...
आज वक्त के साथ बहुत दूर जा रही है...
और मुझसे ये कह रही है की...
ये इतनी भागम भाग क्यूँ है...
आओ कुछ पल साथ बैठ कर...
काम का बोझ कुछ हल्का कर लें...
क्यूंकि ये वक्त छूट रहा हाथों से...
और हम भी दूर जा रहे है तुमसे...
और जानते हो ऐसा कह कर...
वो सब खिलखिलाकर हंस दिए थे...
और साथ मैं हंस पड़ी थी...
ये सोच कर की चलो तुम्हारे सिवा कोई तो है...
जो मुझे कुछ पल साथ बैठने की बात कर रहा है...
अर्चना...

Thursday, April 1, 2010

पगली का प्यार

जब से तुम मिले हो दुनिया ही बदल गई है मेरी...
अच्छा लगने लगा है ये जहाँ...
ये कुदरत...ये कायनात...
और दुश्मनों का भी वो रुखा सा बर्ताव भी ....
हां आग उगलता सा वो सूरज भी भाने लगा है...
और वो टूटी-फूटी डूबती सी नाव भी मन को...
एक जहाज़ का आभास देती है ...
और हाँ वो वृक्षों की पत्तियों पर...
सुखी सी कुरकुरी पत्तियाँ भी मन को बहार सी लगती है....
साथ ही भाने लगी है वो पतझड़ की अकड़ी सी टहनियां...
जिन पर अब कोई पंछी नहीं बैठता...
और हाँ वो नटखट सी नदी का अलबेला सा उफान...
जिस से डर कर अब इसके किनारों पर कोई नहीं आता....
अरे हाँ वो गर्मी की हवा का एक झोंका भी बड़ी ठंडक दे जाता है...
और साथ ही मन को भाता है...
वो चहकते से पंछियों का एक दम से चुप हो जाना...
और मेरे बारे में ये सोचना...
की इस पगली का प्यार भी कितना अजीब है...
इसे वो भी मन को भाता है...
जो दुनिया की नज़र में मनभावन नहीं है ...
अर्चना...

Tuesday, March 30, 2010

"तुम ना आये तो क्या हुआ...आओ तुम्हारे आने की बातें ही करें...की जब तुम आओगे...तो मैं कौन-सी शय नज़्र करूँ तुम्हे...क्यूंकि अब मेरे पास तुम्हारे आने की तमन्ना के सिवा कुछ भी नहीं..." अर्चना ...

इंतज़ार

जीवन का क्या है...

जीवन तो यूँ भी चलता रहेगा...

फिर चाहे मैं तुम्हारे जीवन में रहू या ना रहूँ...

क्या फर्क पड़ता है...

हाँ जानती हूँ एक दिन मैं नहीं रहूंगी...

तब भी सब कुछ वैसा ही होगा....

जैसा अब है...

वैसे ही उगेगा सूरज...

वैसे ही निकलेगा चाँद...

वैसे ही बारिश की बूँदें भिगोएँगी...

तुम्‍हारे तन-मन को...

और वैसे ही पेड़ों के झुरमुट में...

अचानक खिल उठेंगे कई जूही के फूल...

और गोधूलि में टिमटिमाएगी दिए की एक लौ...

और हाँ तारे भी वैसे ही गुनगुनाएंगे विरह के गीत...

जैसे आज मैं गुनगुनाती हूँ...

लोग काम से घर लौटेंगे...

हाँ तुम भी लौटोगे...

लेकिन मैं नहीं मिलूंगी तुम्हे...

और ना तुम्हारी पलकों पर मेरे होंठों की छुअन होगी...

और हाँ नहीं होंगी इंतज़ार की खुमारी से भरी मेरी आँखें भी लेकिन...

एक स्‍मृति बची रह जाएगी मेरी...

और वही तुम्हे बताएगी की...

मैंने किस शिद्दत से तुम्हारा इंतज़ार किया है...

वो इंतज़ार जिसे तुमने महज़ एक इंतज़ार माना...

और मैंने उस में अपनी सारी उम्र तमाम कर दी...

अर्चना...

Tuesday, March 23, 2010

ना जाने क्यूँ...?

ना जाने क्यूँ ...
मेरी उनींदी सी बोझिल आँखों में...
तेरे सपनों के रेशमी धागे...
उलझते जाते हैं...
और धीरे-धीरे...
मैं पाती हूँ अपने आपको...
तेरे उस प्यार के जाल में....
जो तूने अनजाने ही बुन दिया था...
उस वक़्त...
जब जानती नहीं थी की प्यार क्या है...?
और अब जब जान गई हूँ...
तो ये रेशमी जाल सुहाना सा लगता है...
ना जाने क्यूँ...?

Sunday, March 21, 2010

टूटे रिश्तों की आवाज़

टूटते हैं जब रिश्ते...तो कोई आवाज़ नहीं होती...लेकिन ये सच नहीं है...क्यूंकि आवाज़ तो होती है...ठीक वैसे..जैसे बादल फट कर तूफ़ान गरजता है...जैसे उखड़ जाता कोई दरख़्त...आंधी से हार कर छोड़ देता है अपनी जड़े...जैसे फट जाता है ज्वालामुखी...बरसों अन्दर ही अन्दर सुलगने के बाद...जैसे चीत्कारती है नदी की लहरें...बाढ़ आ जाने के बाद ...जानते हो ये सारी आवाजें मिल कर... उस वक़्त एक हो जाती है...और सिर्फ उसे सुनाई देती है...जो ये रिश्ता तोडना तो नहीं चाहता लेकिन...जिसने तोडा है उसे दर्द ना हो...बस इसलिए ख़ामोशी जता कर...
ये सारी आवाजों को अकेले ताउम्र सुनता रहता है...अर्चना...

Wednesday, March 17, 2010

जानती हूँ की यह जीवन एक ऐसा आकाश है..जहाँ सारे रिश्ते-नाते चमकते हुए सितारे है...जी करता है... उन सितारों को अपनी धानी चुनर पर टांक लूँ... सजा लूँ मोतियों की तरह... माला बनाकर देह पर...गुंध लूँ जूही के फूलों की तरह...और सजा लूँ अपने बालों पर...बना लूँ इन्हें अपनी जिंदगी का सिंगार...लेकिन फिर ठहर जाती हूँ...सहम जाती हूँ...क्यूंकि जानती हूँ की ये सितारे कभी-कभी टूट भी जाते है...और इनकी टूटन से मन का चाँद भी ढल कर कहीं दूर चला जाता है...और फिर जिंदगी इन्ही चंद सितारों के साये में...खुले आसमान के नीचे...और रात की ठंडक में... एक भरपूर नींद को तरसती है...
अर्चना...

Sunday, March 14, 2010

एक पुरानी हंसी...

हाँ मैं आदिम हूँ...और मुझे अच्छी लगती है...वो पुरानी चीज़ें...जिन्हें लोग अपनापन...प्यार...संस्कार...सभ्यता...और अपनी जड़ें कहते है...हाँ ये चीज़ें आज लुप्तप्राय है...या अपनी सुविधा अनुसार इसकी परिभाषा बदल गई है...लेकिन फिर भी आज मैं इन्हें एक धरोहर...एक विरासत मान कर इन्हें सहेजे हुए हूँ...हाँ कुछ लोग मुझे इतिहास भी कहते है...क्या फर्क पड़ता है...इन नयी विचारधारा के लोगों में अगर मेरा दिमाग पुराना है... या मैं आदिम हूँ...और मैं खोजती हूं जिंदगी का वो पुरानापन...जहाँ बाबुल का प्यार था...माँ की लोरियां थी...भाई का स्नेह था...बहन का दुलार था...दादी बाबा की आँखों का तारा थी मैं...घर की लाडली बिटिया थी मैं...जहाँ मैं खुल कर जीती थी...खुल कर हंसती थी....हाँ वही एक पुरानी हंसी मुझे हल्का कर देती है तब...जब आज के नए लोग मुस्कुराने में भी संकोच करते है...और ऐसा लगता है की एक इंच की इस मुस्कान के लिए उन्होंने कई मील का सफ़र तय किया है...अर्चना...

Friday, March 12, 2010

मेरा उन्मादी मन...

शब्दों के शिखर पर चढ़ कर...
ये सहज और सरल सा मन मेरा...
ना जाने क्यूं आज बड़ा उन्मादी सा हो रहा है...?
जानते हो ये पगला मुझसे हौले से क्या कह रहा है ...
कह रहा है...
सुन बहुत हुआ जीवन बलिदान...
अब थोडा सा वक़्त खुद को दे...
और कर ले खुद से खुद की पहचान...
ताकि कल को जब सारे जाने पहचाने चले जाए...
तो तू खुद को अजनबी सा ना पाए...
और सुन...
बहुत हुई दूसरों से सबसे मुहब्बत...
अब थोड़ी सी मुहब्बत खुद से भी कर ले...
ताकि कल को ऐसा ना हो की...
जब सबकी चाहत ख़त्म हो जाये...
तो तू इस लफ्ज़-ए-मोहब्बत को समझ ना पाए...
हाँ मेरी बात को मान...
और जो मैं कह रहा हूँ वही कर...
सुन तुझे इजाज़त है...
जा तू अपने लिए जी ले कुछ लम्हे...
वरना कल ऐसा ना हो की...
रेत की तरह फिसल जाये ये जिंदगी...
और तू अपने अहसास...
अपने जज़्बात का दामन थामे...
उस लम्हे के लिए तरसे...जो वक़्त की शाख पर...
ना जाने कबसे तेरा इंतज़ार कर रहा है...
जा अपना ले उसे...
वरना गर तेरी शक्ल बदल गई...
तो कमबख्त ये आईना...
जो आज तेरी सूरत पर इतराता है...
ये भी तुझसे तेरी पहचान मांगेगा...
अर्चना...
ज़िन्दगी में खुदा के बाद तुम हो... तुम हर जगह...हर पल में हो...तुम मेरी जिंदगी का हासिल हो...मेरी ज़ात में शामिल हो...मेरी हसरत...मेरी चाहत...मेरी तमन्ना हो...तुम मेरे अरमान...मेरे अहसास...मेरे जज़्बात हो...हाँ तुम मेरा रूप...मेरा रंग...मेरा दर्पण हो...तुम ही मेरा जीवन...मेरी धड़कन...मेरी रूह हो...और तुम ही मेरा वो साहिल हो...जहाँ आकर मेरी कश्ती अपना मुकाम पाती है...हाँ तुम ही मेरी ज़मी...मेरा फलक...मेरी धूप...मेरी छाँव...मेरा रास्ता...मेरी मंजिल हो... सच तुम से मैं ही तो मैं पूर्णता को पाती हूँ...हाँ तुम ही मेरी श्वास हो...मेरा आभास हो...मेरे शब्द हो...मेरी अभिव्यक्ति हो...और मेरी रग-रग में समाहित हो...हाँ तुम ही मेरी पहचान हो मेरी अधूरी रचनाओं....बस तुम थोडा सा इंतज़ार और कर लो ...क्यूँकी ये जो मेरी बिखरी सी जिंदगी है ना...बस इसे ज़रा समेट लूँ...फिर भले ख्वाब में ही सही...तुम्हे इत्मीनान से तुम्हे पूरा करुँगी...हाँ ये वादा है मेरा...अर्चना...

Thursday, March 11, 2010

ये कैसी दास्ता है...ये कैसा रिश्ता है मेरा तुम्हारा...ना मैं समझ पाई...ना तुम जान पाए...जानते हो जब अकेले में बैठ कर आंकलन करती हूँ...तो ये महसूस होता है की जब मैं तुम्हारे पंख बन जाती हूँ...तो तुम फुर्र से उड़ जाते हो...थामकर मुझे उस नीले विस्तार में...ऐसे की जैसे तुम्हारी वो परवाज़ मेरे बिना अधूरी है...और जब मैं ख़्वाब बन जाती हूँ...तो भर लेते हो अपनी आँखों में ऐसे की जैसे... मेरे सिवा तुमने कोई नज़ारा देखा ही नहीं...और जब बन जाती हूँ बूँद शबनम सी...तो तुम सागर बन समेट लेते हो अपने आग़ोश में...ऐसे की जैसे सिर्फ एक बूँद की प्यास थी तुम्हे....और जब बनती हूँ सुबह की पहली किरण...तो खिल जाते हो एक फूल की तरह...और बन जाते हो मेरा हार सिंगार...लेकिन जब मैं अपनी पहचान की बात करती हूँ...तो तोड़ लेते हो मुझसे पहचान के सारे नाते...और बन जाते हो एक अजनबी...ऐसा क्यूँ ? अर्चना....

Monday, March 8, 2010

कल जब यूँ ही अपनी कुछ पुरानी चीजें समेट रही थी...तो अचानक जिंदगी की किताबे-शौक मिल गई...बस फिर क्या था...यादों की ऐसी पुरवाई चली की उसके हर सफ़े मेरे ज़ेहन में ताज़ा हो गए...जानते हो उसमें में क्या क्या निशानियाँ मिली...कहीं फ़ूल...कहीं पत्तियाँ... कहीं रंग बिरंगी तितलियाँ...कही मोरपंख...तो कहीं तुम्हारे वो ख़त...जो तुमने अपने सोलहवे बसंत पर मुझे लिखे थे...हाँ उनकी लिखावट तो अब नहीं बची...लेकिन उन में वो अहसास अब तक सलामत है...जो आज तुम्हारे लिए अतीत बन गए है...और हाँ उन में दम तोडती हुयी कुछ कहानियाँ भी मिली...सोच रही हूँ कभी तनहाइयाँ मिली...तो छुप के पढ़ लूँगी...लेकिन फिर सोचती हूँ की अब दिल को और ज़ख्मी करने से क्या फायदा...जब कोई लकीर तुम्हारी तरफ़ जाती ही नहीं...उन हथेलियों को अब छुपाने से क्या फायदा...बेहतर यही है की मैं उस किताबे-शौक को दफ़न कर दूँ...क्यूंकि अब वो कहानियाँ भी निज़ात चाहती है...जैसे हम चाहते है एक दूसरे की यादों से...अर्चना...

Sunday, March 7, 2010

इतिहास में दर्ज है नारी के कई रूप...हाँ वो बेबस गांधारी...जिसने पति की आँखें बनने की बजाए...अपने ही नज़ारों से तौबा कर ली...हाँ वो लाचार अहिल्या...जिसने पत्थर बन...बरसों अपने बेगुनाह होने का इंतज़ार किया...हाँ वो पवित्र पतिव्रता सीता...जो अग्निपरीक्षा के बाद भी धरती में समा गई...कभी-कभी सोचती हूँ तो लगता है... आज भी तो सब कुछ वैसा ही है...हर पल कहीं ना कहीं एक गांधारी...एक अहिल्या...या एक सीता...आज भी इसी दौर से गुज़र रही है...कहीं उसकी अस्मत लुटती है...तो कहीं उसका जिस्म छलनी है...तो कही उसका अस्तित्व ही दाव पर लगा है...लेकिन फिर भी वो अटल है...वो निश्छल है...वो निष्पाप है...वो त्याग है...वो बलिदान है...वो शक्ति है...वो सृजन है...वो सुन्दर है...वो सुशील है...वो बेटी है...वो बहन है...वो सखी है...वो पत्नी है...और इस दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती...सबसे बड़ा व्यक्तित्व है...वो माँ है...वो नारी है...अर्चना...अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सभी महिलाओं को हार्दिक शुभकामनाएं...

Friday, March 5, 2010

एक सवाल

पलकों ने आज आँखों से एक सवाल किया...उसने कहा रोज़ तू मुझे नमी देती...फिर चाहे वो खुशियाँ और या गम...तू मुझे आंसुओं का हसीं तोहफा देती है...हाँ तू मुझे कभी गम तो कभी खुशी का आंसू देती है...लेकिन एक बात तो बता...मैं इन दोनों में फर्क महसूस कैसे करूं...कौनसा गम का आंसू...कौन सा ख़ुशी वाला मै पहचान कैसे करूं...क्यूंकि दोनों ही बहुत चमकते हैं...और दोनों ही खारे हैं...बता ना ऐसा क्यूँ है ...जब दोनों के एहसास में इतना फर्क है...तो दोनों की तासीर जुदा क्यूँ नहीं है...गम का आंसू खारा...और ख़ुशी का आंसू मीठा क्यूँ नहीं है ...? अर्चना...

Thursday, March 4, 2010

वो कहते है की मेरी आँखें बहुत बोलती है...इसका राज़ क्या है...अब कैसे बताऊँ उन्हें की ये उन्ही का दिया एक अधूरा ख्व़ाब है...जो मेरी पलकों के एक कोने में क़ैद... आज़ादी की गुहार लगा रहा है...अर्चना....

Tuesday, March 2, 2010

बात तब की है...जब उसकी पर्दादार खिड़की से...दिखता था आसमान का एक टुकड़ा...बस ले दे कर एक वही एक चीज़ थी...जिसे देखने की उसे आज़ादी थी...हाँ उसी को देखते-देखते एक दिन....खुली सड़क पर गलती से उसकी निगाह चली गई...बस फिर क्या था...उसकी दो आँखें थी...वो चार हो गई..उसके बाद दिन आसमान को देख कर... पलकें झुकाने के बहाने... रोज़ उसे देखने की आदत सी हो गई...हर दिन उस पल का रहता था इन्तज़ार...जब उसकी वो दो आँखे पल भर के लिए होती थी चार...और उसकी ही बदोलत सारा दिन... बस एक मीठी सी खुमारी में निकल जाता था...लेकिन एक रोज़ जब निगाहें उसे खोज ही रही थी...की आज़ादी के दुश्मनों ने उसे देख लिया...और फिर छीन लिया...उसके हिस्से का एक टुकड़ा आसमान भी...उसके बाद उसने कभी आसमान नहीं देखा...अर्चना....

Sunday, February 28, 2010

सब रंगे रंगबिरंगे रंगों से...मैं एक प्रीत के रंग...सब कहे होली भाई होली...मैं कहूँ... मैं आज हो ली उनके संग...सब कहे तू बावरी भई री ...का तूने आज पी ली है भंग...मैं कहूँ मोहे प्रीत धुन लागी... और जागी नयी उमंग...इत उत डोलू बावरी सी...जैसे डोले है पतंग...मन हुआ दीवाना मोरा...और जागी नई तरंग...सुन ओ सखी री ...अब ना डार मो पे कोई रंग...अब तो रंगी मैं पिया के रंग में...हुई मोरी नेह अतरंग...अर्चना...
एक वक़्त था जब तुम कहते थे की मेरी नज़र मेरे दिल का आईना है...ये वो कह जाती हैं जो मेरी ज़बा नहीं कह पाती...हाँ याद है मुझे की... इसी की गिरफ्त में आ कर... तुमने मुझसे इजहारे मोहब्बत किया था...हाँ इसी से तुम्हे बड़ी उल्फत थी...हाँ यही तो तुम्हारी जिंदगी थी...और इन्ही में तुमने मेरे दर्द की तस्वीर देखी थी...मेरे अहसास...मेरे जज़्बात को महसूस किया था...लेकिन कुछ दिनों से ये तुम मुझसे नज़रें क्यूँ चुरा रहे हो...क्या ये मेरी नज़र का भ्रम है...या फिर तुम्हारी ही नज़रें बदल गई है...सुनो ये नज़रों का खेल अब बंद भी कर दो...और कह भी दो ना...की अब तुम्हारे लिए मेरी मुहब्बत...मेरी चाहत... मेरी हसरत...मेरी उमंग...मेरी धड़कन...मेरे अरमान...मेरे ख़्वाबों की ताबीर...की अब कोई गरज नहीं है...हाँ कह दो सच मैं बुरा नहीं मानूंगी...बल्कि मैं तो अपनी ही नज़रों को ऐसे झुका लूंगी...जैसे ये कभी तुम्हारी तरफ उठी ही ना हो...क्यूंकि ये मेरी नज़र है...वो नज़र जो मेरे दिल की जुबा है...मेरे दिल का आईना है...और तुम ही तो कहते हो ना... की आईना कभी झूठ नहीं बोलता...अर्चना...

Friday, February 26, 2010

ना जाने क्यूँ खामोशियाँ दे रही है सदा...की आज तू निशब्द हो जा और सुन ले... अपनी जिंदगी के उस अनकहे अहसास को...जो आज किसी को याद करके... तेरी आँखों के ज़रिये बदस्तूर बह रहे है...वो जो तेरी यादों में बसता है लेकिन...तेरी जिंदगी में नहीं...वो जो तेरी आँखों में बसता है लेकिन... तेरे नजारों में नहीं...वो जो तेरे दिल में बसता है लेकिन...तेरी धड़कन में नहीं... वो जो तेरे पास हो कर भी तेरे पास नहीं...वो जो अब तेरे अहसास नहीं...अब तेरे जज़्बात नहीं...अब तेरे लम्हात नहीं...ना ही वो तेरी कायनात है...फिर भी वो कुछ है...जो तुझे शब्दों के साथ भी निशब्द कर देता है...वो गुजरी जिंदगी का एक लम्हा है...जो तुझे भीड़ में भी तनहा कर देता है...तो आज उसी को एक मौन श्रृद्धांजलि दे दे...उसे एक भावभीनी तिलांजलि दे दे...ताकि कल कोई ख़ामोशी तुझे सदा ना दे सके...और तू निशब्द आंसुओं की ज़ुबानी ना बोल सके...क्यूंकि तेरी जिंदगी तेरे शब्द है...और वो गुज़रा लम्हा अब निशब्द है...अर्चना....

Wednesday, February 24, 2010

डाल-डाल टेसू खिले है...आया फागुन मधुमास...प्रकृति भी जैसे कर रही...पिया मिलन की आस...तन-मन हर्षित...गाल गुलाबी...और निखरा है रंग...ऐसा जैसे पिघला सोना...और धूप का अंग...लगता है सुहागे सा होगा...किसी का प्रणय प्रसंग...और किसी पर चढ़ जाएगी... प्रीत की मीठी भंग...फिर होगा अबीर गुलाल से...किसी का आँचल सतरंग...फिर डोलेगा मन मतवाला...लेकर नई उमंग...फिर हर गली मोहल्ले में... खेला जायेगा रासरंग...और फिर सतरंगी बोछारों से... पुलकित होगा नेह अतरंग...और फिर ये देख जब मुस्काएगा...वो चंचल सा अभिसार...हाँ तब मेरे स्मित अधरों पर होगी प्रीत की बोली...सुन ओ सखी री...आज फागुन के काँधे चढ़ कर आई... मेरी प्यार की पहली होली...अर्चना...
सावन हो या फागुन...दोनों बड़े मनभावन...पर दोनों ही एक टीस दे जाते है...चाहे कहीं भी रहो इस महीने में... अपने बड़े याद आते है...रहो बाबुल के अंगना...तो याद आते है सजना...और गर रहो सजना के द्वारे...तो याद आये है बाबुल प्यारे...क्या करून...कैसे सहूँ...कुछ समझ में नहीं आता...ओ रे विधाता...तुने बनाया ये कैसा नाता...बता ना क्यूँ हम अपनों के साथ नहीं रह पाते है... अरे जन्म तो कहीं पाते है...और जन्मो के नाते कहीं और होते है...इसी कशमकश में निकल जाता है सावन...और फागुन...और फिर रह जाती है मन में वही टीस...की क्यूँ बाबुल और साजन के आँगन में थे इतने फासले...की जिन्हें तय करने में जीवन की सब ऋतुएं बीत गई...अर्चना...

Tuesday, February 23, 2010

काश ऐसा खुशियों का ऐसा कोई मंज़र आये...ग़म मेरी बस्तियों से दूर निकल जाये...मैं बन जाऊ एक नन्हा सा बच्चा...और मां की गोद फ़िर से मुझे मिल जाये...मैं उसके आँचल से लिपट कर फिर खिलखिलाऊ...उसकी लोरियों की धुन सुन कर चैन से थोडा सो जाऊ...वही मेरा धर्म हैं ये जान कर सजदे में अपना सर झुकाउ...हाँ कुछ पल के लिए ही सही अपने बचपन में फ़िर से लौट जाऊ...और देखू की जब मेरी शरारत से माँ रूठ कर कितनी सुन्दर लगती है...तो थोडा सा उसे गुस्सा दिलाउ...फिर दे के अपने नाज़ुक मासूम अधरों का चुम्बन...उसके चेहरे पर खुशियों की सौगात लाऊ ...उसके उसके हाथो से मीठी सी दुध रोटी खाऊ...और पी कर पानी उसके हाथों से... बरसो की अपनी प्यास बुझाऊ ...और फिर आखिर में उसके आँचल से...अपने मुंह को पोंछ कर वो चमक ले आऊं...जो इस दुनिया की आपाधापी में कहीं खो सी गई है...हाँ ये सच है की माँ के बिना जिंदगी के चेहरे की चमक खो सी गई है... अर्चना...
पता नहीं क्यूँ... तुम्हारा इंतज़ार करने का मन होता है... कभी किसी फूलों भरे पेड़ की छाया में... कभी तपती सुलगती धूप के वक्त...तो कभी ठंडी झील के किनारे...तो कभी हलकी सुरमुई शाम के वक्त....सच कहूँ तो उन क्षणों में पंछियों को बताना होता है तुम्हारे बारे में... जब वे पेड़ पर बैठे मुझसे इंतज़ार करने का सबब पूछते हैं...और बेचारे शाम के वक्त भी यही सवाल करते है ...जब वे उड़कर अपने घरों में जाते हैं...हाँ सच तब भी वो यही जानना चाहते हैं मुझसे... की तुमसे मुलाक़ात मेरी हुई कि नहीं... और तब उनकी ये मीठी सी हमदर्दी....तुम्हारा ही बंधाया धीरज सी लगती है...वो धीरज...जो तुम अक्सर मुझे बंधाया करते हो...ये कह कर की तुम्हारा इंतज़ार ना करूँ...लेकिन ना जाने क्यूँ तुम्हारा इंतज़ार करने का मन होता है.... अर्चना...
कहाँ रखूं अपनी उदास स्मृतियों का चमकता धारदार हीरा...डर लगता है कहीं तेरे वो अहसास कट गए...तो फिर हम उदास कैसे होंगे...अर्चना...

Sunday, February 21, 2010

मन के विशाल आँगन में...मेरे कुछ नन्हे नटखट से अहसास...यू ही कभी कभी खेलते नज़र आते है...सच कहूँ...तो कभी-कभी मेरा दिल भी इनके साथ खेलने को मचलता है...जी करता है...इनके साथ खूब हुल्लड़ मचाऊ...खुद ही रूठ जाऊ...खुद ही मान जाऊ...खुद से झगडू...फिर हारू और जीतू...थोडा हंसू...हंसाऊ...थोडा अंखियों से नीर बहाऊ ... कुछ खट्टे...कुछ मीठे बैर चखू...बिन कारण नाचू...गाऊ ...और इस दुनिया से बेख़बर अपने मदमस्त से बचपन के मासूम लम्हे साथ लिए...इनके पीछे भागूं...और उन्हे समेट लूँ अपने अरमानो के आँचल में ...लेकिन क्या करूँ...जितना इन अहसास को अपने दामन में समेटना चाहूँ...ये कमबख्त उड़ -उड़ जाते है...ठीक उस तितली की तरह...जो इस फूल से उस फूल अपने रंग फ़िज़ाओ में छोड...फुर्र से उड़ जाती है कभी हाथ न आने के लिए...और मैं अपने मन के आँगन में खड़ी रह जाती हूँ तनहा...एक नए अहसास की आस लिए ...अर्चना...

Friday, February 19, 2010

एक मीठी सी याद

कल शब् यूँ ही बैठे-बैठे तुम्हारी एक बात याद आ गई...और बस फिर क्या था...शब् ऐसे कटी की जैसे सदियाँ एक लम्हे में गुज़र जाती है...मन यूँ खुशियों से भर गया...की सारा आलम ही खुशनुमा नजारों से भर गया...जानते हो जब सुबह की शबनम में नहा कर मेरा वजूद मेरे सामने आया...तो सूरज ने उसे पहला सलाम किया...और उसकी शोख़ चंचल किरणों ने मेरे गीले बालों को जिस लम्हा छुआ...वो बेसाख्ता सा हँस दिया...और उसकी इस हंसी ने मेरी मुस्कान को सात रंगों से भर दिया...और आज मेरी बेरंग जिंदगी में खुशियों का इन्द्रधनुष लहरा गया...अर्चना...

Thursday, February 18, 2010

बीते लम्हों का हिसाब

कल मेज़ की दराज़ से कुछ पन्ने मिले...जो मैंने फाड़ दिए थे अपनी उस डायरी से...जिस में तुम्हारे साथ बिताये लम्हों का हिसाब लिखा था....मैंने देखा की उन पन्नों में अब भी सांस लेती हैं...मेरी कुछ अधबनी कविताएं....कई अधूरे से शब्द...कुछ अनमनी सी उपमाएं...कुछ नन्ही सी स्मृतियां...कुछ टूटे से अरमान...कुछ ख्वाब अधूरे से...कुछ हसरतें बिलखती सी...दो-चार ख़ुशी के लम्हे भी थे ...और हाँ कुछ जज़्बात मिले जो अपनी अंतिम सांस की कगार पर थे...और मिले कुछ जूही के सूखे फूल...जो उन पन्नो से लिपटे हुए थे...ठीक ऐसे...जैसे तुम्हारी कुछ भूली-बिसरी सी यादें...जो जिंदगी की मेज़ के उस दराज़ में महफूज़ है...जिसे मैं कभी खोलना नहीं चाहती...लेकिन आज जब ये डायरी के पन्ने मिल गए...तो सोचती हूँ की उस दराज़ को खोल कर उन यादों को इन पन्नो के साथ विसर्जित कर दूँ...ताकि कल कोई और दराज़ जब खुले...तो कोई ऐसा पन्ना ना मिले...जिस पर उन लम्हों का हिसाब हो...जो लम्हे सदियाँ बीत जाने पर भी नहीं बीते...अर्चना...

Wednesday, February 17, 2010

एक भरपूर जिंदगी

कौन जीता है सच के दायरे में यारों...क्यूंकि एक सच जिसने ये साबित कर दिया है... की आज की जिंदगी एक झूठ का एक पुलिंदा है..जिसके सहारे इंसा अपनी जिंदगी का सफ़र तय करता है...लेकिन धीरे-धीरे ये जाना की ये भी पूरा सच नहीं है...क्यूंकि इस जिंदगी के सफ़र में कई लोग ऐसे भी मिले है...जो सच का दामन थामे अपने ख़्वाबों को टूटते देखते है...लेकिन फिर भी उम्मीद का साथ नहीं छोड़ते...क्यूंकि वो जानते है की झूठ के साये में जीने वाला... अपने हर ख्वाब को एक लम्हे में पूरा तो कर लेता है...लेकिन फिर भी उसकी जिंदगी सतही कहलाती है...और उन में शिद्दत नहीं होती की वो सच का दामन थाम ...जिंदगी के गहरे सागर से वो मोती खोज लाये...जिसे लोग संतोष कहते है...और जिसके सहारे सच्चा इंसा हर दिन एक नया ख्वाब देखता है...बेशक वो अगली सुबह टूट जाये...लेकिन फिर भी आस की डोर थामे वो सच के पथ पर निरंतर चलता है...या सच कहे तो वो असल मायने में जिंदगी जीता है...हाँ अब हम कह सकते है की कुछ लोग ऐसे है...जो सच के दायरे में जीते है...और जी भर के जीते है...अर्चना...

Tuesday, February 16, 2010

सुनो मेरे आंसूंओं से तुम बिलकुल परेशां मत होना...क्यूंकि इनके बहने की वजह तुम नहीं हो...और ना ही तुम्हारी कोई खता नहीं है...बस वो तो कुछ कांच के ख्वाब थे आँखों में,वही टूट कर चुभ गए है...सुनो मेरी ख़ामोशी से तुम बिलकुल परेशां मत होना...क्यूंकि इसके मौन की वजह तुम नहीं हो...और ना ही तुम्हारी कोई खता है...वो तो कुछ अनकहे शब्द थे...जो मेरे गले में रुंध गए है...सुनो तुम मेरी उदासी से बिलकुल परेशां मत होना...क्यूंकि इसके आने की वजह तुम बिलकुल नहीं हो...और ना ही तुम्हारी कोई खता है...बस वो तो एक अहसास का झरोखा टूटा था...जहाँ इसने चुपके से बसेरा बना लिया है ...और हाँ सुनो तुम मेरी इस निशब्द सी हस्ती से परेशां मत होना...क्यूंकि इसके वजूद की वजह तुम हरगिज़ नहीं हो...और ना ही इस में तुम्हारी कोई खता है...वो तो मेरे माज़ी के उन बीते लम्हों का हिसाब है...जो वक़्त के यहाँ गिरवी पड़े है...हाँ सच तुम मेरे जज़्बात मेरे हालात...मेरे ख्वाबों के बिखरने की वजह नहीं हो...वो तो बस मेरे अरमानो के दामन का एक कोना फटा है...जहाँ से एक-एक करके मेरी जिंदगी के ये अनमोल मोती बिखर गए है...और हाँ ये बिलकुल सच है...की ना तुम कोई वजह हो...और ना ही तुम्हारी कोई खता है...अर्चना...
अहम् फैसला...
मेरी जिंदगी ने आज एक अहम् फैसला लिया...उसने आज मुझे हर ग़म से आज़ाद किया...जिसकी ख़ुशी ने मेरे लिए आज पलकों का एक कोना ख़ाली किया...और उसे अश्कों से फ़िर भर दिया...और धीरे से मेरे कान में कहा...की जाओ मैंने तुम्हे हर उस जुर्म से बरी कर दिया...जो तुमने मुझे हँसाने के लिए किये थे...अब तुम आज़ाद हो सदा के लिए....जाओ जिधर तुम्हारा जी चाहे...चाहो तो तुम जागो...या फिर सो जाओ...या फिर खिलखिला कर मुझ पर हंसो...मैं उफ़ तक नहीं करुँगी...क्यूंकि मेरा दामन अब रीता है...और अब मेरे अश्कों का सैलाब सूख गया है...वजह...वजह बस इतनी सी है की अब मैंने ख़्वाब देखना बंद कर दिया है...और मेरे अरमानो के कोमल पंख लिए मेरा वजूद का भोला सा पंछी...हकीकत की सख्त धरातल पर उतर आया है...अर्चना...

Monday, February 15, 2010

सोचा था एक दिन जब तुम मेरी बातों को समझोगे...तब मेरी भी खुशियों का चढ़ेगा सूरज...और उसकी आग ग़म के सर्द के बादलों को ग़ुबार कर देगी...और बहने लगेगा सदियों से जमा हसरतों का सख्त दरिया...और मेरी नम पलकें सूख कर तुम्हे अपलक निहारेंगी...लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ...दिन का सूरज तो तो चढ़ा पर ना ग़म के बादल छटे...ना अरमानो का कोहरा पिघला... उल्टे ग़म की सर्द हवाओं से सूरज की आग भी जम गयी...और उस सर्द हवा ने बुझा दिया दिन का सूरज...वो बेचारा भी उतरने लगा शाम के आगोश में...और मेरा दिन आज न शफ़क़... न गुलाबी... न जाफ़रानी...ना बसंती...ना फागुन के रंगों में सजा...वो तो बस नीला स्लेटी सा अजीब उदासियों के साथ बैठा है...तुम्हारी एक ख़ुशी के रंग में रंगने के लिए...इसलिए हो सके तो अब के फागुन में इसे रंग देना... अर्चना...

कुछ मीठे से सवाल

एहसास की धरती पर उगती है...कुछ अनकही सी बातें...कुछ भूली बिसरी यादें...वक्‍़त के कुछ गुज़रे लम्हे...कुछ अजन्मी सी भावनाएं...कुछ प्‍यार...कुछ छूटे हुए यार...कुछ धोखे...कुछ मेहरबानियाँ...और उस पर वो तल्‍ख़ मुस्‍कान लिए...कुछ प्यारे से दुश्मन...और मुझे सपनो के चाँद पर उड़ाते हुए वो तुम्हारे कुछ वादे....वो खुरदरी, पथरीली...नुकीली...बदहवास...हताश सी परछाइयाँ...वो थोड़ी सी रुसवाइयां...जब मेरे अतीत का कोहरा लिए छंटती हैं...तो स्‍मृतियों की आकृति में उठते हैं कई सवाल...जो मांगते है मुझसे जवाब...मेरे भीतर की रूह को झकझोर देते हैं...और कहते है...की क्या मैंने जो तुझे जिंदगी माना...और तुझ पर एतबार किया...क्या वो मेरा भ्रम था...या फ़लक से उतर आया वो चाँद था...जिसने मेरे एहसास की ज़मी पर तेरे ख्वाब बोये थे...जो आज अतीत के कोहरे में कहीं खो सा गया है...अर्चना....

Saturday, February 13, 2010

हाँ ये सच है गर तुम मानो तो...बहुत ज्यादा की हसरत नहीं ही मुझे...बस सुबह की थोड़ी सी गुनगुनी धूप हो... एक गरम चाय की प्याली हो ...और एक मनपसंद किताब गर मुझे मिल जाये...बस फिर तो मेरा दिल भी रूमानी हो जाये....हाँ बहुत ज्यादा की हसरत नहीं है मुझे...दोपहर की हल्की-हल्की सी गर्मी हो...आँगन में नीम के पेड़ की छाँव हो...और जिसके साये में अलसाया सा मेरा मन गर मिल जाये...बस तो फिर मेरा दिल भी रूमानी हो जाये...हाँ बहुत ज्यादा की हसरत नहीं है मुझे...सुरमुई शाम की ठंडी बयार हो...दिन भर के फसानो और अफसानो का भण्डार हो...और उस पर तुम्हारे आने की खबर गर मिल जाये....बस तो फिर मेरा दिल भी रूमानी हो जाये...हाँ सच बहुत ज्यादा की हसरत नहीं है मुझे...अर्चना...
होने वाली है सहर बुझती हुई शमाओं के साथ...और कुछ लम्हे ठहर ऐ ज़िंदगी...ज़रा तुझे सजदा तो कर लूं...क्यूंकि अब तक मैं खोया रहा तेरी रूमानियत में...तेरी बातों में...तेरे अहसास ओ जज़्बात में...भूल गया था की तू बस कुछ लम्हात की मेहमा है...और मैं तुझे बांधना चाहता था अपने अरमा की उस मुठ्ठी में...जिस में शायद तू रेत की मानिंद फिसल जाती है...लेकिन फिर भी गुज़ारिश कर रहा हूँ...क्यूंकि ज़िन्दा है अभी और अरमा मेरे...कुछ यादों के मुकाम अभी बाकि है...और बाकि है ख़्वाबों के सफ़र की थकान अभी...कुछ दर्द पुराने बाकि है...थोड़े से फ़र्ज़ भी बाकि है...और बाकि है थोड़े से क़र्ज़...बस इन सबका हिसाब चुका दूं...फिर तुझे सजदा कर मैं भी सो जाऊँगा बुझती हुई शमाओं के साथ... बस कुछ लम्हे ठहर ऐ ज़िंदगी...अर्चना...

Wednesday, February 10, 2010

माँ नर्मदा को मेरा नमन....

जिंदगी की आपाधापी में एक जुग बीत गया...और भटकी हुई लहर बन कर जब मैं तेरे पवित्र चरणों को छूने आई.... तो तूने माँ बन कर अपनी बाँहें फैला दीं...और दे दिया मुझे मुक्ति का वचन तूने...जबकि मैंने कभी तुझे कुछ ना दिया...बस जब भी दिया...तूने ही दिया...तेरे हरे भरे किनारों ने...तेरे निर्मल जल ने...हमारी क्षुधा को शांत किया...तूने हमे पावन किया...तू हमारी जन्मदायिनी है...हमारी मुक्तिदायिनी है....और हाँ....तेरे किनारे बसे एक घर में मेरी जड़ें है...वो मेरे पुरखें है...मेरी पहचान है वो...आज फिर उन्ही को याद कर के ...रंग बिरंगे फूलों और सुनहरी दिए की जोत जला...और आस्था- भक्ति का थाल लिए तेरे क़दमों में फिर आ बैठी हूँ.... और अब तुझसे यही चाहती हूँ...की जब तक ये सृष्टि है...तेरे आँचल में जिंदगियां यूँ ही पलती रहे...मेरी प्यारी नर्मदा मैया...तू यूँ ही बहती रहे....अर्चना....

Tuesday, February 9, 2010

यादों की पगडंडियों पर निरंतर चल रही हूँ मैं...शायद कोई मुझे मेरा पता बता देगा....

अनकही अभिव्यक्ति का मैं निशब्द स्वर हूँ मैं...शायद कोई मुझे कहीं सुन रहा होगा....

आज यादों की अजब चली है पुरवाई...बैठे-बैठे ना जाने क्यूँ आँख मेरी भर आई...याद आ रहा है वो मेरे बाबुल का आँगन...जहाँ बीता मेरा एक प्यारा सा बचपन...वो भोली सी अम्मा...वो प्यारी सी दादी...वो बाबुल की बाहें...वो दादा की गोदी...वो काका...वो मुन्नी...वो भैया...वो बहना...जहाँ हर रिश्ता लगता था जैसे सोने का गहना...वो पड़ोस की खिड़की...वो गली वो चोबारा...जहाँ आज जाने का मन है दोबारा...वो बचपन के साथी...वो गुडिया की शादी...वो कंचे रंग-बिरंगे...वो पतंग का मांझा....वो शरारत से बगिया की अम्बिया चुराना...वो चोरी के फूलों का गजरा बनाना...जब पकडे गए...तब वो रोना रुलाना...वो प्यारी सी मस्ती...वो नन्हे से झूठ...वो सावन का झूला...वो तीजे की मेहँदी...वो अम्मा की साड़ी पहन कर लजाना...आज कहीं वो बिखर सा गया है...क्यूंकि धीरे-धीरे ही सही...मेरा वो बचपन गुज़र सा गया है...अर्चना...

Monday, February 8, 2010

सुनो एक सच कहूँ तुमसे...अगर बुरा ना मानो तो...मुझसे ये दोहरी जिंदगी नहीं जी जाती...ये लबों पर ख़ुशी का नगमा...और दिल में ग़म का साज़...ये अजब ग़ज़ल है तुम्हारी...ये मुझसे गाई नहीं जाती...हाँ मैंने तुमसे वादा किया है की मैं खुश रहूंगी सदा ...और गाऊँगी खुशियों के तराने...लेकिन सच कहूँ...दे रही हूँ धोखा तुम्हे ये बात मुझसे अब सही नहीं जाती...एक गुज़ारिश हैं तुमसे गर मानो तो..तुम मेरी जिंदगी का फलसफा पढना छोड़ दो अब...क्यूंकि इसके पन्ने बड़े बेरतबीब है...और इसकी इबारत अब पढ़ी नहीं जाती...अर्चना....

Sunday, February 7, 2010

हाँ मैं खुश हूँ...बहुत खुश...क्यूँ...क्यूंकि कोई है...जो दूर हो कर भी मेरे साथ रहता है...वो मेरे दर्द का साथी है...वो मुझे हर दम याद करता है...और वो मेरी भी यादों में भी बसता है...जहाँ भी मैं जाती हूँ...वो यादों का साया बन कर हमेशा मेरे साथ चलता है...वो मेरे अहसास..मेरे जज़्बात में बसता है...मेरी जिंदगी का अटूट हिस्सा हैं वो...मेरी जिंदगी की कहानी एक नया सा किस्सा है वो...वो किस्सा जिसके बिना मेरी कहानी अधूरी है...हाँ उसी से तो मेरी ये दुनिया पूरी है...लेकिन एक बात कहूँ...वो सवाल बहुत पूछता है...कहता है...जब तुम खुश हो कर मुस्कुराती हो...तो तुम्हारी आँखों में ये पानी क्यूँ आता है...?...तो मैं कहती हूँ...की मेरी ख़ुशी की ज़मी यूँ ही नम नहीं है दोस्त...उस ज़मी के पास एक दर्द का दरिया है...जो सदियों से मेरी खुशियों के साथ बदस्तूर बहता है...बस यही वजह है की मेरे होंठों पर तो मुस्कान...और आँखों में पानी रहता है...हाँ मैं खुश हूँ...क्यूंकि कोई है...जो दूर हो के भी मेरे साथ रहता है....अर्चना...
क्यूँ कचोट रहा हैं किसी का मौन मुझे...जबकि उसके कहने का अब कोई अर्थ ना रहा...क्यूँ किसी की सांत्वना की हैं दरकार मुझे...जबकि मेरे दुःख का अब वो वक़्त ना रहा...दुखों से संभालना था...अब संभल ही गए हैं...फिर क्यूँ किसी से कोई आस रखे...जो साथ थे...वो साथ देते रहे...अब दर्द-ऐ-दिल इतना सख्त ना रहा...जिंदगी की धूप से अब कोई शिकवा ही नहीं मुझे... जितनी किस्मत में थी...उतनी छाँव मिल ही गई... हाँ ये बात और हैं...की जिससे छाँव की थी उम्मीद मुझे...वो ठूंठ बन गया...अब दरख्त ना रहा...क्यूँ कचोट रहा हैं किसी का मौन मुझे...जबकि उसके कहने का अब कोई अर्थ ना रहा...अर्चना....
मेरे आंसूंओं से तुम बिलकुल परेशां मत होना...क्यूंकि तुम्हारी कोई खता नहीं है...बस वो तो कुछ कांच के ख्वाब थे आँखों में,वही टूट कर चुभ गए है...अर्चना...

Saturday, February 6, 2010

मेरी कविता...मेरा जीवन...जो मेरे जीवन का आधार है...वो मुझसे अचानक रूठ गई...और चली गई दूर कहीं...और फिर कई दिनों तक नहीं हुई हमारी मुलाकात...मुझे लगा जैसे सब चले जाते है...वैसे ये भी चली गई है...और एक दिन खुद ही लौट आएगी...जैसे सब लौट आते है एक अंतराल के बाद...और आते ही तपाक से मिल भर लेगी बाँहों में...और धर देगी मेरी आँखों पर अपने नर्म और कोमल हाथ....और पूछेगी एक सहेली की तरह...बताओ कौन? और मैं चहक उठूंगी किसी बुलबुल की तरह...और कहूँगी तुम हो मेरी कविता...मेरी जिंदगी....और हाँ फिर झूट-मूठ रूठ कर पूछूंगी...की तुम क्यूँ चली गई थी कविता ! कहाँ रही तुम इतने दिन? मैंने तुम्हे कई महीनों, बरसों तक ढूंढ़ा...और अब मिली हो तो पहचानी नहीं जाती क्या यह तुम ही हो कविता? लेकिन अफ़सोस एक दिन जब वो मिली ...तो ना जाने क्यूँ हम एक दूसरे को पहचान कर भी पहचानने का अभिनय करते रहे...ना उसने मुझे गले ही लगाया...और ना ही मेरी आँखों को मूंदा ...और हाँ हम दोनों के बीच एक अजीब सा फासला था...जो कहने को तो एक पल का था...लेकिन उस में दूरियां सदियों की थी....और जिसे ना तो वो तय कर पा रही थी...और ना ही मैं....हम दोनों साहिल के उन दो किनारों की तरह एक दूसरे को बेवजह देखे जा रहे थे....और सोच रहे थे...की हाँ कुछ रिश्ते ऐसे होते है...जो ना बन पाते है..ना तोड़े जाते है...क्यूंकि वो दर्द के रिश्ते होते है...बस तब से ले कर आज तक मेरा और मेरी कविता के बीच यही दर्द का रिश्ता है...और हम ये रिश्ता बखूबी निभा रहे है....अर्चना....
कल शब् जब मैं अपनी जिंदगी में मिली...तो मैंने उस से पूछ ही लिया....की सुनो मेरी लाख कोशिशों के बाद भी तुम इतनी उदास क्यूँ हो...इतनी तनहा...इतनी अकेली क्यूँ हो...बोलो तुम ऐसी क्यूँ हो...तो वो हलके से मुस्काई...और बोली....हाँ मैं ऐसी ही हूँ...एक अनबूझ पहेली सी...खुद अपनी आप सहेली सी...एक अनाम अकेली सी...हाँ मैं तो ऐसी ही हूँ...तब मैंने भी हंस कर कहा...अच्छा और अपने बारे में कुछ और बताओ...तो वो बोली मैं किसी से बंधना गर चाहू तो ऐसे बंधू ...की जिसे वक़्त और हालात की धार ना काट सके...कटू तो ऐसे जैसे की जैसे किसी शाख से पत्ता टूट कर फिर कभी ना जुड़ सके...तो मैंने उस से कहा की तुम्हारे पास जीने के लिए क्या है...तो उसने कहा मेरे पास कुछ उसूल है...जो दुनिया की नज़र में एक दम बेकार है...और जिनकी वजह से फूल नहीं है मेरी राहों में...हाँ मेरी राह कुछ कंटीली सी है...कुछ पथरीली सी है...लेकिन मैं खुश हूँ....क्यूंकि मैं तो ऐसी ही हूँ...और ये कह कर वो फिर मेरे सपनो में खो गई...और जब मेरी आँख खुली तो पहली बार उसकी ये बातें सुन कर मुझे ये अहसास हुआ की सच... मैं तो यूँ ही परेशां थी....जबकि उसकी तो इस उदासी में भी कितना सकून है...क्यूंकि वो लाख अकेली...एक पहेली... और थोड़ी पगली सी है...लेकिन उसका दामन दागदार नहीं...उसकी आत्मा पर कोई बोझ नहीं...और अब ऐसा लगता है की मैं थोडा सा खुश हो कर ये कह सकती हूँ की मेरी जिंदगी अब उदास नहीं...अकेली नहीं...उसके उसूल उसके साथ है...हाँ मेरी जिंदगी अब किसी के साथ है...अर्चना...

Friday, February 5, 2010

यूँ तो कहने को जीवन तो पूरा हो गया लेकिन... मेरे वजूद की तस्वीर अभी अधूरी है...
और उसके अधूरेपन की वजह तुम हो...तुम जो चित्रकार थे मेरे जीवन के लेकिन उस में वो रंग ना भर सके...जिस से मेरी तस्वीर पूरी हो सके...लेकिन मैं हार नहीं मानूंगी...मैं उस अधूरी तस्वीर को पूरा करुँगी...हाँ मैं उस में सूरज़ का तेज़ भरुंगी...चाँद सी शीतलता से सजाउंगी...
पानी की निर्मलता से सहेजूंगी...और धरती की सहनशीलता से दूंगी....
फूलों सी कोमलता से करुँगी इसका श्रृंगार...भरुंगी कुछ रंग तितलियों से,
नीले मुक्त गगन से लूंगी थोडा सा विस्तार...और हाँ थोड़ी सी सिन्दूरी आभा लूंगी ढलती शाम से...
सोचती हूँ थोड़ी चमक ले लूँ सितारोंसे...और अंधेरों में भी टिमटिमाने की अदा जुगनुओं से ....थोड़ी सी हरियाली ले लूं खेतों की....झरने सी चंचलता ले लूं...और ले लूं नदी का वो ठहरापन तो क्या बात है .... अरे हाँ पहाड़ों से ले लूं स्थिरता...और ले लूं हवाओं की थोड़ी सी नमी...थोड़ी आग की तपिश भी ले लूं...और थोड़ी हरे पेड़ों की छाँव भी...और सजा लूं इनके रंगों से अपने वजूद की ज़मी को जो तुम्हारे दर्द से बेरंग हो गई है....और तब शायद ऐसा ना कह सकूं की यूँ तो कहने को जीवन पूरा हो गया लेकिन मेरे वजूद की तस्वीर अभी अधूरी है....अर्चना...

Thursday, February 4, 2010

आकांक्षाओं का ये मुक्त गगन...और इस में उड़ता मेरी आस का ये नन्हा सा पंछी...यूँ उडा जा रहा है...जैसे इस गगन को सिर्फ उसी के लिए बनाया गया है...वो देखो कैसे अपने परों को नापता...तौलता थोडा सहमता...थोडा किलकता...थोडा उन्मादी...थोडा फरियादी...थोडा सा खुशमिजाज़ भी है...तो थोडा सा ग़मगीन भी...उसे देख कर दिल को बड़ा सकूं मिल रहा है...अरे वो देखो...अभी-अभी वो थोडा सा बहका था...और देखो अभी वो संभल भी गया...और अब देखो...वो थक कर धीरे से... मेरे दिल की खिड़की पर आकर बैठ गया है...और जैसे ही मैंने उसे छूना चाहा...वो फुर्र से उड़ गया...और में उसकी परवाज़ को खडी एकटक देखती रही...उस परवाज़ को...जो मेरी ही देन है लेकिन...अब उस पर मेरा कोई हक़ नहीं...क्यूंकि अब आज़ाद है वो मेरी आस का नन्हा सा पंछी...अर्चना...
सच कहना...क्या आज इस महानगर के ५०० फीट के घर में तुम सुखी हो...या गाँव की उस खपरैल वाले घर की बड़ी शिद्दत से याद आती है ...जहाँ आँगन में नीम के पेड़ तले अम्मा चूल्हे पर मक्के की रोटी बनती थी...सच कहना... क्या आज टेबल पर बैठ कर ब्रेड बटर खा कर तुम सुखी हो...या उस मक्के की रोटी की बड़ी शिद्दत से याद आती है...जिस पर अम्मा घी गुड रख कर खिलाती थी...सच कहना...क्या आज लाखों की कार में बैठ कर ट्राफिक के बीच तुम खुश हो...या बाबा की वो खटारा साइकिल की बड़ी शिद्दत से याद आती है...जिस पर बैठ कर तुम गाँव के मेले में जाते थे....सच कहना... क्या आज तुम घर पर लौट कर वही सकून महसूस करते हो....या उन दिनों की बड़ी शिद्दत से याद आती है...जब सारा दिन खेत पर काम करके बाबा भी के चेहरे पर थकन नहीं होती थी... सच कहना...क्या आज तुम वक़्त को टुकड़ों में बाँट कर खुश हो...या उन लम्हों की तुम्हे बड़ी शिद्दत से याद आती है...जिनका हिसाब तुम्हे किसी को नहीं देना होता था...सच कहना सच कहना...क्यूंकि अगर सच कहोगे...तो कम से कम इस मुरझाये शहर में तुम्हारे चेहरे पर थोड़ी सी चमक तो आएगी...और उस चमक को देख कर शायद हम थोडा और जी लें...अर्चना...

Tuesday, February 2, 2010

उम्‍मीद तुम्हारे आने की तब क्यूँ आती हैं...जब कभी मैं सारी दुनिया से नाउम्‍मीद होती हूँ... जानती हूँ दिन अनगिनत बीते हैं तुम्हारे आने की उम्मीद में...और कई अधसोई उनींदी रातों के हिसाब भी हैं मेरे पास लेकिन...फिर भी उम्मीद का सपना मेरी आँखों में यूँ पल रहा है...जैसे खुली आँखों से मैंने तुम्हारे आ जाने का भ्रम पाला हो...और हकीकत की भोर होते ही वो सपने बन पंख लगा कर उड़ गए ऐसे ....की जैसे कई बरसों से मन का पंछी किसी पिंजरे में क़ैद था...नहीं नहीं मेरी उम्मीद इतनी कमज़ोर नहीं की वो मेरा साथ छोड़ दे...वो तो ऐसी है जैसे रातों में जलती आँखों में गहरी नींद हो...जैसे थकन और उदासी से टूटती देह में थिरकन हो...जैसे सन्‍नाटे में संगीत सी घुमड़ती कोई ग़ज़ल हो...जैसे मरुस्‍थल में जल की धारा मेह बन बरसती हो....जैसे समंदर की सीप में अनमोल कोई मोती हो...जैसे कैक्टस के बाग़ में गुलाब खिले हो...जैसे दर्द में मिला सकून हो...जैसे परदेस में मिला कोई अपना हो...और वो अपना कोई और नहीं तुम हो...तुम जो मेरी उम्‍मीद हो...मेरी विश्वास हो...मेरी जिंदगी हो...मेरी श्वास हो...तो चलो आज मैं तुम्ही से पूछती हूँ...क्या मेरी उम्‍मीद जो मेरी मोहब्बत है कभी कभी पूरी भी होगी ...या वो कमबख्त तुम्हारी जिद जो मेरी सौत है वो जीत जाएगी... अर्चना...

Monday, February 1, 2010

“पलकों ने बनाया था एक शामियाना की जिसमें… आज चंद आंसूओं ने चुपके से ली थी पनाह…और ये सोच कर उस में बनाया था बसेरा…की वक़्त आने पर बह के वो भी बताएँगे अपना हुनर… लेकिन हम भी कुछ कम हुनरमंद नहीं यारों….आंसू हो या हो गम…या हो कोई दर्द भरी चुभन…हर अहसास को दिल में जज़्ब करने की अदा पाई हैं…अपने हर आंसू पर मुस्कान की मीठी सी परत चढ़ाई हैं …अब चाहे कुछ भी हो ये आंसू ना आज़ाद होंगे …ये इसी तरह पलकों में क़ैद-ओ-आबाद होंगे …इन् पर लगायेंगे हम मुस्कान का ऐसा पहरा …चाह कर भी ये हमारा साथ ना छोड़ पाएंगे …इन्हें अब वही बसर करना होगा जहाँ मेरे अहसास हैं …मेरे जज़्बात हैं …मेरा दर्द हैं …जो मेरी विरासत हैं …क्यूंकि मैं जानती हूँ की इनके बिना ख़ुशी की कोई कदर नहीं होती…हाँ ये अनमोल खजाना हैं …मेरी पलकों के बेमिसाल मोती…” अर्चना...

Friday, January 29, 2010

कोई जाने या ना जाने लेकिन तुम जानते हो की तुम्‍हारा होना मेरी ज़िंदगी में ऐसे है, जैसे धरती पर कई सूरज एक साथ जगमगाते हो...ऐसे की जैसे कई चाँद अपनी ठंडक से मेरी रूह को सकून देते हो...ऐसे की जैसे जैसे कई जूगनू मेरे आँगन में दमकते हो...ऐसा जैसे सुहागन के माथे पर कई सिन्दूरी कण चमकते हो...ऐसा की जैसे जूही के फूलों के कई गजरे महकते हो...ऐसा की जैसे जाड़ों के मौसम में लोग धूप तापते हो...ऐसा की जैसे बारिश की पहली फुहार में बच्चे नहाते हो...ऐसा की जैसे गाँव में सावन में झूले पड़ते हो...ऐसा की जैसे दुल्हन के हाथों में मेहँदी के फूल रचते हो...ऐसा की जैसे ओंस की शबनमी बुँदे गुलशन को भिगोते हो...ऐसा की जैसे दुनिया की भीड़ में बच्चे माँ के आँचल में छिपते हो...ऐसा की जैसे कई गुल एक सेहरा में खिलते हो...ऐसा की जैसे पहले प्यार में दो दिल धड़कते हो...ऐसा की जैसे दूर कहीं धरती और गगन मिलते हो...और मिल कर कभी ना बिछड़ेंगे ये वादा भी करते हो...लेकिन नहीं जानती की तुम्हारा होना मेरे लिए जितना बड़ा सच है...क्या तुम्हारे लिए भी है...शायद नहीं...तभी तो मैं तुम्हारी हो कर जी रही हूँ...और तुम केवल होने के अहसास के साथ वही खड़े हो...जहाँ से हमारे प्यार का सफ़र शुरू हुआ था... अर्चना...

Wednesday, January 27, 2010

ये लो जिंदगी की शाम भी आ गई और अभी तो जीवन में कितना कुछ होना बाकि है... अभी तो कहना था तुमसे बहुत कुछ...सुनना था तुमसे बहुत कुछ...कुछ प्यार की बातें...कुछ तकरार की बातें...जाना था तुम्हारे साथ वहां... जहाँ एक नदी थी...जिसके पार जाना था...पहाड़ी की हरियाली पर तुम्हारे साथ फिसलना था.... एक बार सुदूर जंगल के एकांत में जोर से तुम्हारा नाम पुकारना था....तुम्‍हारी गर्दन में अपनी बाहें डाले तुम्‍हारी पीठ पर लटक जाना था....अचानक पीछे से आकर तुम्‍हारी आँखों को मूंद लेना था... अपनी उँगलियों से गीली रेत पर तुम्हारा नाम लिखना था...सुरमुई शाम को चुपचाप चट्टान पर बैठ समंदर की लहरों को गिनना था... तुम्हारी हूँ...तुम्हारी रहूंगी हमेशा इस एहसास में जीना था...दुनिया की इस भीड़ में सहम कर तुम्हारी हथेली थामे बस यूँ ही गुज़ारना था...तुम्हे यूँ ही बिना मकसद टकटकी बांधे घंटो देखना था...अपने भीगे बालों के छीटों से तुम्हारी उस फाइल को भिगोना था...जिसका बहाना ले कर मुझे तुम तडपाते थे... और तुम्हे सुख के सितारों से जड़ी कुछ यादें देनी थी ...और निरंतर उस मोड़ तक साथ चलना था....जहाँ से हमारी राहें जुदा हुई थी ...और हम देर तलक एक दुसरे से सिर्फ अलविदा कह रहे थे...इस आस में की हम दोनों में से कोई तो किसी को रोकेगा...कहेगा मत जाओ...लेकिन हमारे अहम् ने हमे कहने से रोक लिया...और हम जुदा हो गए....और देखो ना ये जीवन भी कमबख्त इस रफ़्तार से गुज़रा....कि ऐसा कुछ न हुआ जीवन में...जो सोचा था...जो जीना था...और अब ये लगता है की कितना कुछ होना बचा रह गया। और अब ये जिंदगी की शाम भी आ गई...अर्चना...

Tuesday, January 26, 2010

अजनबी से मोड़ हैं यहाँ...बेगानी सी है रहगुज़र...चले जा रहे हम बेसाख्ता से...ले के अपनी ख्वाहिशों का लश्कर...जो भी हो लेकिन इस सफ़र का है अपना मज़ा यारों...इस में कुछ दूरियों से हुई है नजदीकियां... तो कुछ नजदीकिया बन गई हैं दूरिया...कुछ रूठ गई है परछाइयां...और कुछ टूटे है मेरे ख़्वाबों के मंज़र...चले जा रहे हम बेसाख्ता से...ले के अपनी ख्वाहिशों का लश्कर...इस सफ़र में थोड़ी सी रौशनी भी हैं...थोडा सा अँधियारा भी...थोड़ी सी मुफलिसी हैं...तो थोडा सा मनचाहा भी...थोड़ी सी नींदे है इस में...थोडा सा हैं रतजगा...और थोड़ी सी है खट्टी-मीठी यादों की सहर...चले जा रहे हम बेसाख्ता से...ले के अपनी ख्वाहिशों का लश्कर...इस सफ़र में थोडा गम है...और थोड़ी सी है खुशियाँ भी...थोड़ी सी मेहरबानियाँ भी हैं...थोडा सा प्यार भी है...और थोडा सा है बेवफाई का भी कहर ...चले जा रहे हम बेसाख्ता से...ले के अपनी ख्वाहिशों का लश्कर... अर्चना...

Monday, January 25, 2010

जिंदगी के सारे रंग गुम गए हैं शायद...तभी तो तेरी तस्वीर धुंधली हो गई हैं...बीते कल की जड़ें कमज़ोर हो गई है शायद...तभी तो यादों की टहनी शाख से टूट गई हैं....धागे तेरी प्रीत के टूट गए हैं शायद...तभी तो प्यार की माला बिखर सी गई हैं...राहों में तेरी यादों के दीये बुझ गए हैं शायद...तभी तो जिंदगी मेरी भटक सी गई हैं...मेरी पलकों की क़ैद में आंसू कसमसा गए हैं शायद...तभी तो आँखों में एक चुभन सी भर गई हैं...मौसम की तरह तू बदल गया हैं शायद...तभी तो बहार आ कर भी नहीं हैं...मेरे अहसास अब मर गए हैं शायद...तभी तो क़यामत का अब मुझे डर नहीं हैं... अब चाहे रहगुज़र में तुम मिलो ना मिलो...मिल गई तुम्हारी बेवफाई अब हमे कोई डर नहीं हैं....अर्चना...

Sunday, January 24, 2010

तुम चंचल निर्झर सा झरना...मैं एक ठहरी सहमी सी नदी...दोनों की हैं विपरीत दिशा...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम उन्मुक्त आकाशीय विहग...मैं धरती का एक भोला मृग...दोनों की हैं रफ़्तार अलग...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम हो गगन का चमकता चाँद... मैं हूँ धरा का सहज चकोर...हम में तुम में अंतर कितना...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम सूरज की तपिश में नहाये हुए...मैं चाँद की शीतलता से सजी...हम दोनों की हैं तासीर जुदा...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम कहते ना बांधो रिश्तों को...मैं कहती...मैं जीती रिश्तों में...ना मैं तोड़ सकूँ...ना तुम जोड़ सको...हम साथ चलें तो कैसे चलें...अब डर हैं यही कल हो ना हो...अरमान कभी पूरे हो ना हो...छोडो ये मैं तुम का झगड़ा...कुछ तुम भी चलो...कुछ मैं भी चलूँ...फिर शायद कोई भी कह ना सके...हम साथ चलें तो कैसे चलें....अर्चना...

Wednesday, January 20, 2010

कुछ बरसो पहले चला था एक कारवां...जो आज तक बदस्तूर जारी हैं लेकिन...अब उस कारवां में बस एक ही मुसाफिर बचा हैं....और वो हैं मेरा एक नन्हा सा वजूद...वो वजूद जो बिखरा तो कई बार लेकिन...फिर भी आज तक कायम हैं...शायद अब भी मंजिल को पाने की एक छोटी सी उम्मीद कहीं सांसे ले रही हैं ऐसे की जैसे....कोई ठन्डे पानी का झरना किसी सहरा में बहता हो ...की जैसे कोई कश्ती किसी तूफ़ा से लडती हो...की जैसे कोई दीये की लौ तेज़ हवाओं में टिमटिमा रही है ऐसे की जैसे कह रही हो तूफ़ा से....ऐह तूफ़ा तू चाहे जितने जतन कर ले...मेरा ये नन्हा सा वजूद...और मेरी नन्ही सी उम्मीद हमेशा रहेगी कायम...क्यूंकि मजिल के उस पार...कोई हैं जो मेरी मंजिल हैं...वो मेरी जिंदगी हैं...मेरी रौशनी हैं...मेरी ख़ुशी...मेरा विश्वास हैं वो...वो कभी तो मिलेगा मुझे...क्यूंकि मेरे वजूद की एक सच्ची आस हैं वो... अर्चना...
ठहर ऍह जिंदगी...अभी कई दर्द हैं बाकि...बाकि हैं कई धोखे...और कई ज़ख्म हैं बाकि....वैसे एक बात पूंछू तुझसे...ये तेरा कैसा फलसफा हैं...की कई ठोकरे खा कर भी...तू बदस्तूर चलती हैं...ना रूकती हैं...ना झुकती हैं...ना थमती हैं...ना थकती हैं...ना तेरी ये रफ़्तार कम ही होती हैं...बता ना ये कैसा जुनू हैं तेरा...ये कैसी वहशत हैं...तेरे हर कदम पर वहशत हैं...तेरी हस्ती में दहशत हैं...फिर भी तू बिना रुके...क्यूँ चली जा रही हैं...क्या अब भी कोई सफ़र हैं बाकि...आरी ओ बावरी....ज़रा तो ठहर...पीछे मुड कर तो देख...बीते दिनों में क्या खोया हैं तुने...और क्या पाया हैं...वो देख कुछ सुख के लम्हे...कुछ रिश्ते बिखरे से...कुछ अरमा टूटे से...कुछ यादें सहमी सी...कुछ आंसू गिले से...कुछ सूखी सी हंसी...कुछ यारों के धोखे...कुछ रूखे से किस्से...एक बाबुल अंगना...वो अम्मा की बातें...एक प्यारा सा बचपन...एक सहमा सा तन-मन... ये सब तुझे बुलाते हैं...तू पहले इन्हें संजो तो ले...फिर चाहे तो आगे बढ़ जाना...क्यूंकि जान गई मैं की... अभी तेरा एक सफ़र बाकि हैं...जहाँ और दर्द हैं...और ज़ख्म हैं...और इम्तेहा बाकि हैं...तेरी बिखरी सी...टूटी सी सही...कुछ और सांसे बाकि हैं...अर्चना

Tuesday, January 19, 2010

समंदर पर मेरा एतबार तो देखो ... कागज़ की कश्ती पर सफ़र कर रही हूँ ... अब इससे मेरा हौसला कहो ...या कहो तूफ़ान से लड़ने का दम ...भरी बरसात है लेकिन ...सूखी रेत का एक महल बना रही हूँ ...अब इससे मेरा नाज़ कहो ...या कहो मेरा एतबार खुद पे ...ज़ख्म जिनसे मिले है ...उसी को अपना बना रही हूँ ...क्यूंकि लोग कहते है ना... प्यार पत्थर को भी पिघला देता है ...तो मैं उसी पावन प्यार से एक पत्थर को पिघला रही हूँ ...नहीं जानती की मेरी ये कोशिश... कभी कामयाब होगी या नहीं...लेकिन ये हौसला...ये एतबार खुद पे...यही तो मेरी पहचान है...बस इसी के लिए जीए जा रही हूँ...

Friday, January 15, 2010

रंग बदलते संसार में...जीवन की तेज़ रफ़्तार में....यादें तुम्हारी मेरी धरोहर...मुफलिसी के इस बाज़ार में...कितनी मुश्किलें...कितनी उलझाने...हर पल एक नया संघर्ष हैं लाई...लेकिन तुम्हारी यादें मन में...एक नया हौसला भी लाई...अब यही हौसला मेरे जीने का आधार हैं...तुम नहीं साथ तो क्या हुआ...तुम्हारी यादों की धरोहर तो मेरे साथ हैं...जानते हो अब जिंदगी की राह में... अंधेरों का मुझे डर नहीं...क्यूंकि मुझे पता है...तुम्हारी यादों के ये छोटे -छोटे जुगनू... मुझे रौशनी दिखायेंगे...और इसी रौशनी के सहारे... मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचाएंगे...और जानते हो मेरी मंजिल क्या है...मेरी मंजिल है...जीवन भर यूँ ही... तुम्हारी इस अनमोल...बेमिसाल...और जान से भी प्यारी... यादों की इस धरोहर को संजोये रखना...अर्चना....

Thursday, January 7, 2010

शब्दों के बुने जाल में फंसी ये जिंदगी...कितनी निः शब्द हैं...ये अहसास तब हुआ जब किसी के शब्दों के बाणो से निः शब्द हुई ये जिंदगी...अब इसके अहसास भी निः शब्द...इसके जज़्बात भी निः शब्द...इसका बोलना भी निः शब्द...इसका सुनना भी निः शब्द...इसका हंस ना भी निः शब्द... इसका क्रंदन भी निः शब्द...और तो और इसके शब्द भी निः शब्द... और अब हसरत यही हैं की इन्ही सब निः शब्द ध्वनियों की गूँज उसके कानो में भी पड़े... और उसे अहसास हो की उसके शब्दों के बाणों ने किसी का जीवन निः शब्द कर दिया हैं...औरतब वो कुछ पल निः शब्द हो जाये... तो मेरी ख़ामोशी को कुछ शब्द मिल जाये... और मैं उस से कह दूं की प्यार को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं हैं...वो तो निः शब्द हैं...अर्चना दुबे (दमोहे)
शब्दों के बुने जाल में फंसी ये जिंदगी...कितनी निः शब्द हैं...ये अहसास तब हुआ जब किसी के शब्दों के बाणो निः शब्द हुई ये जिंदगी...अब इसके अहसास भी निः शब्द...इसके जज़्बात भी निः शब्द...इसका बोलना भी निः शब्द...इसका सुनना भी निः शब्द...इसका हंस ना भी निः शब्द... इसका क्रंदन भी निः शब्द...और तो और इसके शब्द भी निः शब्द... और अब हसरत यही हैं की इन्ही सब निः शब्द ध्वनियों की गूँज उसके कानो में भी पड़े... और उसे अहसास हो की उसके शब्दों के बाणों ने किसी का जीवन निः शब्द कर दिया हैं...औरतब वो कुछ पल निः शब्द हो जाये... तो मेरी ख़ामोशी को कुछ शब्द मिल जाये... और मैं उस से कह दूं की प्यार को शब्दों की ज़रुरत ही नहीं हैं...वो तो निः शब्द हैं...

Tuesday, January 5, 2010

मेरे इर्द -गिर्द घूमता हैं वो एक साया है...जो हर दम मेरे साथ रहना चाहता हैं... जहाँ मैं जाती हूँ...वो पीछे-पीछे आता हैं....क्यूंकि वो साया मेरी ही परछाई है... जो कभी मुझसे जुदा होना नहीं चाहती... लेकिन हर दम रूप बदलती है जैसे...सुबहा दुगनी...शाम चौगनी...दोपहर में सिकुड़ी हुयी...और अंधेरे में गुम होती हुई... मेरे अन्दर सिमट जाती हैं...और कहती हैं...बस कुछ देर का अँधेरा हैं...फिर रौशनी होगी...और हम साथ होंगे...मैं मुस्कुराती हूँ...और कहती हूँ...ये दिलासा मुझे मत दो...मैं अंधेरों में भी जीना जानती हूँ...मुझे तुम्हारी ज़रुरत नहीं...तुम्हे मेरी ज़रुरत हैं...तुम कल फिर लौट के आओगे...क्यूंकि मेरी वहज से तुम्हारा वजूद हैं...और यही सच हैं...यही सच हैं...