Friday, February 5, 2010

यूँ तो कहने को जीवन तो पूरा हो गया लेकिन... मेरे वजूद की तस्वीर अभी अधूरी है...
और उसके अधूरेपन की वजह तुम हो...तुम जो चित्रकार थे मेरे जीवन के लेकिन उस में वो रंग ना भर सके...जिस से मेरी तस्वीर पूरी हो सके...लेकिन मैं हार नहीं मानूंगी...मैं उस अधूरी तस्वीर को पूरा करुँगी...हाँ मैं उस में सूरज़ का तेज़ भरुंगी...चाँद सी शीतलता से सजाउंगी...
पानी की निर्मलता से सहेजूंगी...और धरती की सहनशीलता से दूंगी....
फूलों सी कोमलता से करुँगी इसका श्रृंगार...भरुंगी कुछ रंग तितलियों से,
नीले मुक्त गगन से लूंगी थोडा सा विस्तार...और हाँ थोड़ी सी सिन्दूरी आभा लूंगी ढलती शाम से...
सोचती हूँ थोड़ी चमक ले लूँ सितारोंसे...और अंधेरों में भी टिमटिमाने की अदा जुगनुओं से ....थोड़ी सी हरियाली ले लूं खेतों की....झरने सी चंचलता ले लूं...और ले लूं नदी का वो ठहरापन तो क्या बात है .... अरे हाँ पहाड़ों से ले लूं स्थिरता...और ले लूं हवाओं की थोड़ी सी नमी...थोड़ी आग की तपिश भी ले लूं...और थोड़ी हरे पेड़ों की छाँव भी...और सजा लूं इनके रंगों से अपने वजूद की ज़मी को जो तुम्हारे दर्द से बेरंग हो गई है....और तब शायद ऐसा ना कह सकूं की यूँ तो कहने को जीवन पूरा हो गया लेकिन मेरे वजूद की तस्वीर अभी अधूरी है....अर्चना...

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