Thursday, February 4, 2010
सच कहना...क्या आज इस महानगर के ५०० फीट के घर में तुम सुखी हो...या गाँव की उस खपरैल वाले घर की बड़ी शिद्दत से याद आती है ...जहाँ आँगन में नीम के पेड़ तले अम्मा चूल्हे पर मक्के की रोटी बनती थी...सच कहना... क्या आज टेबल पर बैठ कर ब्रेड बटर खा कर तुम सुखी हो...या उस मक्के की रोटी की बड़ी शिद्दत से याद आती है...जिस पर अम्मा घी गुड रख कर खिलाती थी...सच कहना...क्या आज लाखों की कार में बैठ कर ट्राफिक के बीच तुम खुश हो...या बाबा की वो खटारा साइकिल की बड़ी शिद्दत से याद आती है...जिस पर बैठ कर तुम गाँव के मेले में जाते थे....सच कहना... क्या आज तुम घर पर लौट कर वही सकून महसूस करते हो....या उन दिनों की बड़ी शिद्दत से याद आती है...जब सारा दिन खेत पर काम करके बाबा भी के चेहरे पर थकन नहीं होती थी... सच कहना...क्या आज तुम वक़्त को टुकड़ों में बाँट कर खुश हो...या उन लम्हों की तुम्हे बड़ी शिद्दत से याद आती है...जिनका हिसाब तुम्हे किसी को नहीं देना होता था...सच कहना सच कहना...क्यूंकि अगर सच कहोगे...तो कम से कम इस मुरझाये शहर में तुम्हारे चेहरे पर थोड़ी सी चमक तो आएगी...और उस चमक को देख कर शायद हम थोडा और जी लें...अर्चना...
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बहुत फर्क है दोनों में सच में बहुत याद आती है. मेरे यहाँ "खपरैल" के स्थान पर "छप्पर" हुआ करता था. यादें साकार और तरोताजा करने तथा भावों से सराबोर अति सुंदर आलेख के लिए आभार और धन्यवाद.
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