Sunday, February 7, 2010

क्यूँ कचोट रहा हैं किसी का मौन मुझे...जबकि उसके कहने का अब कोई अर्थ ना रहा...क्यूँ किसी की सांत्वना की हैं दरकार मुझे...जबकि मेरे दुःख का अब वो वक़्त ना रहा...दुखों से संभालना था...अब संभल ही गए हैं...फिर क्यूँ किसी से कोई आस रखे...जो साथ थे...वो साथ देते रहे...अब दर्द-ऐ-दिल इतना सख्त ना रहा...जिंदगी की धूप से अब कोई शिकवा ही नहीं मुझे... जितनी किस्मत में थी...उतनी छाँव मिल ही गई... हाँ ये बात और हैं...की जिससे छाँव की थी उम्मीद मुझे...वो ठूंठ बन गया...अब दरख्त ना रहा...क्यूँ कचोट रहा हैं किसी का मौन मुझे...जबकि उसके कहने का अब कोई अर्थ ना रहा...अर्चना....

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