Monday, February 15, 2010

सोचा था एक दिन जब तुम मेरी बातों को समझोगे...तब मेरी भी खुशियों का चढ़ेगा सूरज...और उसकी आग ग़म के सर्द के बादलों को ग़ुबार कर देगी...और बहने लगेगा सदियों से जमा हसरतों का सख्त दरिया...और मेरी नम पलकें सूख कर तुम्हे अपलक निहारेंगी...लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ...दिन का सूरज तो तो चढ़ा पर ना ग़म के बादल छटे...ना अरमानो का कोहरा पिघला... उल्टे ग़म की सर्द हवाओं से सूरज की आग भी जम गयी...और उस सर्द हवा ने बुझा दिया दिन का सूरज...वो बेचारा भी उतरने लगा शाम के आगोश में...और मेरा दिन आज न शफ़क़... न गुलाबी... न जाफ़रानी...ना बसंती...ना फागुन के रंगों में सजा...वो तो बस नीला स्लेटी सा अजीब उदासियों के साथ बैठा है...तुम्हारी एक ख़ुशी के रंग में रंगने के लिए...इसलिए हो सके तो अब के फागुन में इसे रंग देना... अर्चना...

2 comments:

  1. .और मेरा दिन आज न शफ़क़... न गुलाबी... न जाफ़रानी...ना बसंती...ना फागुन के रंगों में सजा...वो तो बस नीला स्लेटी सा अजीब उदासियों के साथ बैठा है...तुम्हारी एक ख़ुशी के रंग में रंगने के लिए...इसलिए हो सके तो अब के फागुन में इसे रंग देना... अर्चना..
    Bahut sundar!

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