Wednesday, February 24, 2010

सावन हो या फागुन...दोनों बड़े मनभावन...पर दोनों ही एक टीस दे जाते है...चाहे कहीं भी रहो इस महीने में... अपने बड़े याद आते है...रहो बाबुल के अंगना...तो याद आते है सजना...और गर रहो सजना के द्वारे...तो याद आये है बाबुल प्यारे...क्या करून...कैसे सहूँ...कुछ समझ में नहीं आता...ओ रे विधाता...तुने बनाया ये कैसा नाता...बता ना क्यूँ हम अपनों के साथ नहीं रह पाते है... अरे जन्म तो कहीं पाते है...और जन्मो के नाते कहीं और होते है...इसी कशमकश में निकल जाता है सावन...और फागुन...और फिर रह जाती है मन में वही टीस...की क्यूँ बाबुल और साजन के आँगन में थे इतने फासले...की जिन्हें तय करने में जीवन की सब ऋतुएं बीत गई...अर्चना...

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