Sunday, February 21, 2010

मन के विशाल आँगन में...मेरे कुछ नन्हे नटखट से अहसास...यू ही कभी कभी खेलते नज़र आते है...सच कहूँ...तो कभी-कभी मेरा दिल भी इनके साथ खेलने को मचलता है...जी करता है...इनके साथ खूब हुल्लड़ मचाऊ...खुद ही रूठ जाऊ...खुद ही मान जाऊ...खुद से झगडू...फिर हारू और जीतू...थोडा हंसू...हंसाऊ...थोडा अंखियों से नीर बहाऊ ... कुछ खट्टे...कुछ मीठे बैर चखू...बिन कारण नाचू...गाऊ ...और इस दुनिया से बेख़बर अपने मदमस्त से बचपन के मासूम लम्हे साथ लिए...इनके पीछे भागूं...और उन्हे समेट लूँ अपने अरमानो के आँचल में ...लेकिन क्या करूँ...जितना इन अहसास को अपने दामन में समेटना चाहूँ...ये कमबख्त उड़ -उड़ जाते है...ठीक उस तितली की तरह...जो इस फूल से उस फूल अपने रंग फ़िज़ाओ में छोड...फुर्र से उड़ जाती है कभी हाथ न आने के लिए...और मैं अपने मन के आँगन में खड़ी रह जाती हूँ तनहा...एक नए अहसास की आस लिए ...अर्चना...

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