Saturday, February 13, 2010

होने वाली है सहर बुझती हुई शमाओं के साथ...और कुछ लम्हे ठहर ऐ ज़िंदगी...ज़रा तुझे सजदा तो कर लूं...क्यूंकि अब तक मैं खोया रहा तेरी रूमानियत में...तेरी बातों में...तेरे अहसास ओ जज़्बात में...भूल गया था की तू बस कुछ लम्हात की मेहमा है...और मैं तुझे बांधना चाहता था अपने अरमा की उस मुठ्ठी में...जिस में शायद तू रेत की मानिंद फिसल जाती है...लेकिन फिर भी गुज़ारिश कर रहा हूँ...क्यूंकि ज़िन्दा है अभी और अरमा मेरे...कुछ यादों के मुकाम अभी बाकि है...और बाकि है ख़्वाबों के सफ़र की थकान अभी...कुछ दर्द पुराने बाकि है...थोड़े से फ़र्ज़ भी बाकि है...और बाकि है थोड़े से क़र्ज़...बस इन सबका हिसाब चुका दूं...फिर तुझे सजदा कर मैं भी सो जाऊँगा बुझती हुई शमाओं के साथ... बस कुछ लम्हे ठहर ऐ ज़िंदगी...अर्चना...

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