Monday, March 8, 2010

कल जब यूँ ही अपनी कुछ पुरानी चीजें समेट रही थी...तो अचानक जिंदगी की किताबे-शौक मिल गई...बस फिर क्या था...यादों की ऐसी पुरवाई चली की उसके हर सफ़े मेरे ज़ेहन में ताज़ा हो गए...जानते हो उसमें में क्या क्या निशानियाँ मिली...कहीं फ़ूल...कहीं पत्तियाँ... कहीं रंग बिरंगी तितलियाँ...कही मोरपंख...तो कहीं तुम्हारे वो ख़त...जो तुमने अपने सोलहवे बसंत पर मुझे लिखे थे...हाँ उनकी लिखावट तो अब नहीं बची...लेकिन उन में वो अहसास अब तक सलामत है...जो आज तुम्हारे लिए अतीत बन गए है...और हाँ उन में दम तोडती हुयी कुछ कहानियाँ भी मिली...सोच रही हूँ कभी तनहाइयाँ मिली...तो छुप के पढ़ लूँगी...लेकिन फिर सोचती हूँ की अब दिल को और ज़ख्मी करने से क्या फायदा...जब कोई लकीर तुम्हारी तरफ़ जाती ही नहीं...उन हथेलियों को अब छुपाने से क्या फायदा...बेहतर यही है की मैं उस किताबे-शौक को दफ़न कर दूँ...क्यूंकि अब वो कहानियाँ भी निज़ात चाहती है...जैसे हम चाहते है एक दूसरे की यादों से...अर्चना...

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