Sunday, March 14, 2010
एक पुरानी हंसी...
हाँ मैं आदिम हूँ...और मुझे अच्छी लगती है...वो पुरानी चीज़ें...जिन्हें लोग अपनापन...प्यार...संस्कार...सभ्यता...और अपनी जड़ें कहते है...हाँ ये चीज़ें आज लुप्तप्राय है...या अपनी सुविधा अनुसार इसकी परिभाषा बदल गई है...लेकिन फिर भी आज मैं इन्हें एक धरोहर...एक विरासत मान कर इन्हें सहेजे हुए हूँ...हाँ कुछ लोग मुझे इतिहास भी कहते है...क्या फर्क पड़ता है...इन नयी विचारधारा के लोगों में अगर मेरा दिमाग पुराना है... या मैं आदिम हूँ...और मैं खोजती हूं जिंदगी का वो पुरानापन...जहाँ बाबुल का प्यार था...माँ की लोरियां थी...भाई का स्नेह था...बहन का दुलार था...दादी बाबा की आँखों का तारा थी मैं...घर की लाडली बिटिया थी मैं...जहाँ मैं खुल कर जीती थी...खुल कर हंसती थी....हाँ वही एक पुरानी हंसी मुझे हल्का कर देती है तब...जब आज के नए लोग मुस्कुराने में भी संकोच करते है...और ऐसा लगता है की एक इंच की इस मुस्कान के लिए उन्होंने कई मील का सफ़र तय किया है...अर्चना...
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
जहाँ बाबुल का प्यार था...माँ की लोरियां थी...भाई का स्नेह था...बहन का दुलार था...दादी बाबा की आँखों का तारा थी मैं...घर की लाडली बिटिया थी मैं...जहाँ मैं खुल कर जीती थी...खुल कर हंसती थी....हाँ वही एक पुरानी हंसी मुझे हल्का कर देती है तब...जब आज के नए लोग मुस्कुराने में भी संकोच करते है...और ऐसा लगता है की एक इंच की इस मुस्कान के लिए उन्होंने कई मील का सफ़र तय किया है....
ReplyDeleteAankhon ke aage ek dhund-si chha gayi....
purani cheezein wakayi achchhi hoti hain
ReplyDelete