जिंदगी समझौतों में ऐसे उलझी की...
सपनो से रिश्ता टूट गया...
आँख तो अब भी तरसती है लेकिन...
मेरे नज़ारों ने ही साथ छोड़ दिया...
घर का बोझ उठाने वाले...
बचपन की तक़दीर न पूछ ओ ज़माने ...
क्यूंकि इधर बच्चा घर से निकला काम के लिए...
उधर माँ ने उसका खिलौना तोड़ दिया...
हाँ किसको फ़ुर्सत इस दुनिया में...
जो कोई ग़म की कहानी पढ़े या सुने ...
तभी तो भटक गए है शब्द मेरे...
और कलम ने मेरा साथ छोड़ दिया...
हाँ कई मंज़र देखे मैंने इस दुनिया की भीड़ में लेकिन...
जब मेरे ही अशार उसने अपने नाम से बेचे...
तो मैंने भी अपना रोज़ा तोड़ दिया...
हाँ आज मैंने उसकी मोहब्बत का हर पैमाना तोड़ दिया...
अर्चना...
No comments:
Post a Comment