जब वो लड़की थी...
यूँ ही अपने संसार में...
भटकती थी...
दौड़कर चढ़ जाती थी...
उम्मीदों के पहाड़...
उछलकर आसमान तोड़ लाती...
आशाओं के तारे...
यूँ ही पेड़ की इस डाली से उस डाली...
चहकती थी बुलबुल की तरह...
कभी साइकिल...
तो कभी स्कूटर उठा...
पूरे शहर का चक्कर लगाती...
घर की छत से पैर लटकाकर
कैरी का अचार चुरा कर खाती...
पहाड़ी झरने-सी बहती...
चंचल हवा के झोको से उड़ कर...
चाँद को छू आना चाहती थी...
आसमान के सारे सितारे...
अपने दुपट्टे में सजाना चाहती...
सोचती थी....
जाएगी एक दिन दूर कहीं सजन के द्वार....
जहाँ दिन होगा चांदी का...
रात सोने की...
लेकिन...
जब उसकी उम्मीद टूटी तो पाया...
समझोतों की एक लम्बी फेहरिस्त में जहाँ...
वो बहू है...
पत्नी है...
माँ है...
और अब सास भी बन जाएगी....
लेकिन...
अब वो लड़की कुछ और नहीं चाहती...
ना धरती...
ना आसमान...
ना ही चाँद तारे...
ना ही सायकिल...
और ना स्कूटर की सवारी...
ना बुलबुल की तरह चहकना...
न कैरी का आचार खाना..
ना पहाड़ी झरने की तरह बहना....
ना चंचल हवा सा बहना...
वो तो बस चौराहे तक चली जाती कभी-कभी...
अपनी मन पसंद सब्जी लेने...
बस इतनी ही आज़ादी है उसे...
अब यही उसकी उडान है...
यही उसकी परवाज़ है...
अर्चना...
Sunday, December 19, 2010
Thursday, December 16, 2010
अब तुम मेरे राजदार नहीं रहे...
नहीं अब पल भी नहीं सहूंगी...
इस तरह मेरी तरफ तुम्हारी बेरुखी को...
आज ख़त्म कर दूंगी हर दर्द के उस अहसास को...
जिसे दे कर तुम मुझसे प्यार का दावा करते हो....
फिर कोई बात नहीं गर....
रिश्तों की ये डोर मेरे हाथ से छूट गई...
मैं अपने बचे खुचे वजूद के साथ ही जी लूंगी...
कम से कम सड़क की भीड़ में...
यूँ अकेले रहने का अहसास तो ख़त्म होगा...
हाँ नहीं दिखाऊंगी तुम्हें...
अपने उन सवालों के ज़ख्म...
जो कभी किये थे मैंने लेकिन...
तुमने कभी उनके जवाब नहीं दिए...
और हाँ नहीं रखूंगी मेरे कंधों पर...
तुम्हारे प्यार के निशान...
क्यूंकि वैसे ही निशान....
तुमने औरों को भी दिए है...
हाँ मैं मिटा रही हूँ इन्हें...
दूर तक फैली हरी दूब की नर्मी से...
सुबह ओस की ठंडक से...
दुपहर को धूप की गर्मी से...
और शाम की सिन्दूरी आभा से....
धो रही हूँ तुम्हारे यादों के निशान...
क्यूंकि अब तुम मेरे राजदार नहीं रहे....
इस तरह मेरी तरफ तुम्हारी बेरुखी को...
आज ख़त्म कर दूंगी हर दर्द के उस अहसास को...
जिसे दे कर तुम मुझसे प्यार का दावा करते हो....
फिर कोई बात नहीं गर....
रिश्तों की ये डोर मेरे हाथ से छूट गई...
मैं अपने बचे खुचे वजूद के साथ ही जी लूंगी...
कम से कम सड़क की भीड़ में...
यूँ अकेले रहने का अहसास तो ख़त्म होगा...
हाँ नहीं दिखाऊंगी तुम्हें...
अपने उन सवालों के ज़ख्म...
जो कभी किये थे मैंने लेकिन...
तुमने कभी उनके जवाब नहीं दिए...
और हाँ नहीं रखूंगी मेरे कंधों पर...
तुम्हारे प्यार के निशान...
क्यूंकि वैसे ही निशान....
तुमने औरों को भी दिए है...
हाँ मैं मिटा रही हूँ इन्हें...
दूर तक फैली हरी दूब की नर्मी से...
सुबह ओस की ठंडक से...
दुपहर को धूप की गर्मी से...
और शाम की सिन्दूरी आभा से....
धो रही हूँ तुम्हारे यादों के निशान...
क्यूंकि अब तुम मेरे राजदार नहीं रहे....
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