कुछ देर ग़मगीन रही...
कुछ बूंदें आंसू के टपका कर रोती रही.. .
फिर जैसे हल्की हो गई...
ऐसे कि जैसे...
कुछ हुआ ही ना हो...
और ऐसा इसलिए हुआ
क्यूंकि जिंदगी ने रोने की इजाज़त नहीं दी हैं मुझे...
इजाज़त हैं तो सिर्फ दूसरो के आंसू पोछने की...
उनका साथ देने की...
और इसीलिए उनका साथ देती रहती हूँ...
शायद जिंदगी ने किसी के साथ की इजाज़त नहीं दी हैं मुझे...
इंसान हूँ...
गलती हो ही जाती हैं...
भावनाओं के तूफ़ान में बह कर...
किसी को अपना समझ लेती हूँ ...
लेकिन अगले ही पल...
उस तूफ़ान में एक ज्वर उठ कर...
मुझे जता ही देता हैं...
जिंदगी ने किसी को अपना की इजाज़त नहीं दी हैं मुझे...
जानती हूँ मेरी जिंदगी मुझे क्यूँ दायरों में बांधती हैं...
क्यूंकि जानती हैं वो...
मैं जिस मिट्टी की बनी हूँ...
उसके सांचे में कोई ढल नहीं सकता...
लेकिन फिर भी...
बार-बार उम्मीद का दामन थामे...
उनसे उम्मीद करती हूँ...
जिन्होंने मुझे नाउम्मीद कर दिया...
लेकिन फिर भी हैरान हूँ मैं क्योंकि...
पहली बार ही सही...
जिंदगी ने नाउम्मीदी की इजाज़त नहीं दी हैं मुझे...
ना जाने क्यों...?
अर्चना...
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति के साथ.... मनभावन पोस्ट...
ReplyDeleteफुर्सत मिले तो 'आदत.. मुस्कुराने की' पर आकर नयी पोस्ट ज़रूर पढ़े .........धन्यवाद |
ReplyDeleteननिहाल की कुछ यादें
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/2011/09/blog-post_19.html
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteZindagi kisi ko naummeedi ki ijazat nahi deti kyunki zindagi khud ees ummeed se jee rahi hai ki kal ka sooraj aaj k sooraj se zyada roushan hogi... aur agar nahi, toh parson toh hai hi...
ReplyDeletebhaut khub archana ji ....laga jaise mere bhi mann ke bhavo ko aki kavita na prastut kar diya
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