Wednesday, July 9, 2014

"ज़िंदगी गुलज़ार हैं..."

किराये के घर के एक कोने में बैठ...
ठिठुरते जाड़े में…
चिपचिपाती गर्मी में…
और बरसातों में
शांत हो पढ़ते हो तुम...
टांकते हो...
मेरी उम्मीदों के आँचल में…
अपनी मेहनत के बेहिसाब तारें...
और…
जब मैं तुमसे कहूँ कि मेरे बेटे...
कुछ देर ठहर जा...
तू अपने लड़कपन को तो जी ले...
तब तुम मुझे…
देते हो मेरी बीती हुई तन्हा जवानी का हिसाब…
याद दिलाते हो मेरी गुरबत में बीते पलों के अहसास...
जहां सिर्फ और सिर्फ समझौते थे जिंदगी के...
और आज भी उन्ही के साथ जी रही हूँ...
तुम्हारी माँ और बाप का अकेले फर्ज़ निभाते हुए...
लाख मुश्किलों के बावजूद जीते हुए...
इस आस में कि पढ़ लिख कर जब तुम पार करोगे...
इस अभाव की गहरी खाई को...
तब मेरे भी दिन बदल जाएंगे...
और मैं भी झूम के कहूँगी...
"ज़िंदगी गुलज़ार हैं..."
अर्चना

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