Sunday, April 25, 2010

सूरज ढलने को है लेकिन...
अब तक तू मुझे क्यूँ आज़मा रही है जिंदगी...
सुन ज़रा बता तो और कितने इम्तेहान बाकि है...
और कितने इल्ज़ाम बाकि है...

तो जिंदगी बेदर्द मुस्कुरा के बोली...

सुन जितनी तेरी उम्मीदें है...

जितने तेरे अहसास है...

जितने तेरे जज़्बात है...

जितने तेरे सपने है...

जितने तेरे अपने है...

जितना तेरा यकीं है...

जितना तुझमें प्यार है...

बस उतने ही इम्तेहान बाकि है...

उतने ही इलज़ाम बाकि है...

तो मैंने भी हंस कर उसे कहा...

सुन एक बात तू कहना भूल गई है शायद...

जितने मेरे हौसले है बुलंद...

उतने इम्तेहान और इलज़ाम है बाकि...

हाँ सुन आ आजमा ले मुझे...

क्यूंकि उम्मीद...

अहसास...

जज़्बात...

सपने...

अपने...

यकीं...

और प्यार के साथ...

कुछ हौसले मेरे अब भी है बाकि...

अर्चना...

1 comment:

  1. कम शब्दों में बहुत सुन्दर कविता।
    बहुत सुन्दर रचना । आभार
    ढेर सारी शुभकामनायें.



    Sanjay kumar
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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