Sunday, September 15, 2013

जन्म से खानाबदोश ज़िन्दगी...

जन्म से खानाबदोश ज़िन्दगी...
जो एक बेटी...
बहन...
पत्नी...
माँ...
सास...
दादी...
नानी...
ऐसे कई रिश्तों के पडाव को पार करके...
कभी घर के किसी सुनसान कोने में...
कभी मन्दिर की सीढीयों पर...
तो कभी वृध्दाश्रम में आसरा तो पा जाती हैं...
लेकिन इसके चेहरे पर ना जाने कितने दुख...
ना जाने कितनी पीडाएं...
ना जाने कितने अहसास...
ना जाने कितनी अधूरी इच्छाओं का बोझ...
झुर्रियां बन कर खामोशी से उभरते हैं...
और अनायास एक सवाल करते है...
कि इतने रिश्तों की विरासत के बावजूद...
हर औरत जन्मजात खानाबदोश क्यों है...?
(अर्चना)

No comments:

Post a Comment