Tuesday, January 19, 2010

समंदर पर मेरा एतबार तो देखो ... कागज़ की कश्ती पर सफ़र कर रही हूँ ... अब इससे मेरा हौसला कहो ...या कहो तूफ़ान से लड़ने का दम ...भरी बरसात है लेकिन ...सूखी रेत का एक महल बना रही हूँ ...अब इससे मेरा नाज़ कहो ...या कहो मेरा एतबार खुद पे ...ज़ख्म जिनसे मिले है ...उसी को अपना बना रही हूँ ...क्यूंकि लोग कहते है ना... प्यार पत्थर को भी पिघला देता है ...तो मैं उसी पावन प्यार से एक पत्थर को पिघला रही हूँ ...नहीं जानती की मेरी ये कोशिश... कभी कामयाब होगी या नहीं...लेकिन ये हौसला...ये एतबार खुद पे...यही तो मेरी पहचान है...बस इसी के लिए जीए जा रही हूँ...

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