Sunday, January 24, 2010

तुम चंचल निर्झर सा झरना...मैं एक ठहरी सहमी सी नदी...दोनों की हैं विपरीत दिशा...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम उन्मुक्त आकाशीय विहग...मैं धरती का एक भोला मृग...दोनों की हैं रफ़्तार अलग...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम हो गगन का चमकता चाँद... मैं हूँ धरा का सहज चकोर...हम में तुम में अंतर कितना...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम सूरज की तपिश में नहाये हुए...मैं चाँद की शीतलता से सजी...हम दोनों की हैं तासीर जुदा...हम साथ चलें तो कैसे चलें...तुम कहते ना बांधो रिश्तों को...मैं कहती...मैं जीती रिश्तों में...ना मैं तोड़ सकूँ...ना तुम जोड़ सको...हम साथ चलें तो कैसे चलें...अब डर हैं यही कल हो ना हो...अरमान कभी पूरे हो ना हो...छोडो ये मैं तुम का झगड़ा...कुछ तुम भी चलो...कुछ मैं भी चलूँ...फिर शायद कोई भी कह ना सके...हम साथ चलें तो कैसे चलें....अर्चना...

2 comments:

  1. वाह .....Archana जी गज़ब का लिखतीं हैं आप .......!!

    ReplyDelete
  2. huuuuunnnn! compromising nature. prblem must be solved. wait.....flwrs will bloom....ok .one thing U tell me plz. aap ye shabd kahaan se laatee hain?

    ReplyDelete