Thursday, March 11, 2010

ये कैसी दास्ता है...ये कैसा रिश्ता है मेरा तुम्हारा...ना मैं समझ पाई...ना तुम जान पाए...जानते हो जब अकेले में बैठ कर आंकलन करती हूँ...तो ये महसूस होता है की जब मैं तुम्हारे पंख बन जाती हूँ...तो तुम फुर्र से उड़ जाते हो...थामकर मुझे उस नीले विस्तार में...ऐसे की जैसे तुम्हारी वो परवाज़ मेरे बिना अधूरी है...और जब मैं ख़्वाब बन जाती हूँ...तो भर लेते हो अपनी आँखों में ऐसे की जैसे... मेरे सिवा तुमने कोई नज़ारा देखा ही नहीं...और जब बन जाती हूँ बूँद शबनम सी...तो तुम सागर बन समेट लेते हो अपने आग़ोश में...ऐसे की जैसे सिर्फ एक बूँद की प्यास थी तुम्हे....और जब बनती हूँ सुबह की पहली किरण...तो खिल जाते हो एक फूल की तरह...और बन जाते हो मेरा हार सिंगार...लेकिन जब मैं अपनी पहचान की बात करती हूँ...तो तोड़ लेते हो मुझसे पहचान के सारे नाते...और बन जाते हो एक अजनबी...ऐसा क्यूँ ? अर्चना....

2 comments:

  1. .और जब बनती हूँ सुबह की पहली किरण...तो खिल जाते हो एक फूल की तरह...और बन जाते हो मेरा हार सिंगार...लेकिन जब मैं अपनी पहचान की बात करती हूँ...तो तोड़ लेते हो मुझसे पहचान के सारे नाते...और बन जाते हो एक अजनबी...ऐसा क्यूँ ?
    ek aseem dard kee kasak!

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  2. बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

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