Tuesday, March 2, 2010

बात तब की है...जब उसकी पर्दादार खिड़की से...दिखता था आसमान का एक टुकड़ा...बस ले दे कर एक वही एक चीज़ थी...जिसे देखने की उसे आज़ादी थी...हाँ उसी को देखते-देखते एक दिन....खुली सड़क पर गलती से उसकी निगाह चली गई...बस फिर क्या था...उसकी दो आँखें थी...वो चार हो गई..उसके बाद दिन आसमान को देख कर... पलकें झुकाने के बहाने... रोज़ उसे देखने की आदत सी हो गई...हर दिन उस पल का रहता था इन्तज़ार...जब उसकी वो दो आँखे पल भर के लिए होती थी चार...और उसकी ही बदोलत सारा दिन... बस एक मीठी सी खुमारी में निकल जाता था...लेकिन एक रोज़ जब निगाहें उसे खोज ही रही थी...की आज़ादी के दुश्मनों ने उसे देख लिया...और फिर छीन लिया...उसके हिस्से का एक टुकड़ा आसमान भी...उसके बाद उसने कभी आसमान नहीं देखा...अर्चना....

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