Sunday, December 19, 2010
जब वो लड़की थी...
यूँ ही अपने संसार में...
भटकती थी...
दौड़कर चढ़ जाती थी...
उम्मीदों के पहाड़...
उछलकर आसमान तोड़ लाती...
आशाओं के तारे...
यूँ ही पेड़ की इस डाली से उस डाली...
चहकती थी बुलबुल की तरह...
कभी साइकिल...
तो कभी स्कूटर उठा...
पूरे शहर का चक्कर लगाती...
घर की छत से पैर लटकाकर
कैरी का अचार चुरा कर खाती...
पहाड़ी झरने-सी बहती...
चंचल हवा के झोको से उड़ कर...
चाँद को छू आना चाहती थी...
आसमान के सारे सितारे...
अपने दुपट्टे में सजाना चाहती...
सोचती थी....
जाएगी एक दिन दूर कहीं सजन के द्वार....
जहाँ दिन होगा चांदी का...
रात सोने की...
लेकिन...
जब उसकी उम्मीद टूटी तो पाया...
समझोतों की एक लम्बी फेहरिस्त में जहाँ...
वो बहू है...
पत्नी है...
माँ है...
और अब सास भी बन जाएगी....
लेकिन...
अब वो लड़की कुछ और नहीं चाहती...
ना धरती...
ना आसमान...
ना ही चाँद तारे...
ना ही सायकिल...
और ना स्कूटर की सवारी...
ना बुलबुल की तरह चहकना...
न कैरी का आचार खाना..
ना पहाड़ी झरने की तरह बहना....
ना चंचल हवा सा बहना...
वो तो बस चौराहे तक चली जाती कभी-कभी...
अपनी मन पसंद सब्जी लेने...
बस इतनी ही आज़ादी है उसे...
अब यही उसकी उडान है...
यही उसकी परवाज़ है...
अर्चना...
Thursday, December 16, 2010
अब तुम मेरे राजदार नहीं रहे...
इस तरह मेरी तरफ तुम्हारी बेरुखी को...
आज ख़त्म कर दूंगी हर दर्द के उस अहसास को...
जिसे दे कर तुम मुझसे प्यार का दावा करते हो....
फिर कोई बात नहीं गर....
रिश्तों की ये डोर मेरे हाथ से छूट गई...
मैं अपने बचे खुचे वजूद के साथ ही जी लूंगी...
कम से कम सड़क की भीड़ में...
यूँ अकेले रहने का अहसास तो ख़त्म होगा...
हाँ नहीं दिखाऊंगी तुम्हें...
अपने उन सवालों के ज़ख्म...
जो कभी किये थे मैंने लेकिन...
तुमने कभी उनके जवाब नहीं दिए...
और हाँ नहीं रखूंगी मेरे कंधों पर...
तुम्हारे प्यार के निशान...
क्यूंकि वैसे ही निशान....
तुमने औरों को भी दिए है...
हाँ मैं मिटा रही हूँ इन्हें...
दूर तक फैली हरी दूब की नर्मी से...
सुबह ओस की ठंडक से...
दुपहर को धूप की गर्मी से...
और शाम की सिन्दूरी आभा से....
धो रही हूँ तुम्हारे यादों के निशान...
क्यूंकि अब तुम मेरे राजदार नहीं रहे....
Thursday, October 28, 2010
और उम्र गुज़र गयी...अर्चना...
और एक तू है की यकी करता ही नहीं...
अब मैं पशेमा हूँ की बाकि की उम्र किसके नाम करू...
ना वादा अपना...ना यकी अपना...
हाँ थोडा सा तेरा अहम् और मेरी थोड़ी सी जिद बाकि बची है...
सोच रही हूँ क्या काफी है बाकि की गुज़र के लिए...
फिर सोचती हूँ....
नहीं उसी वादे के नाम कर दूँ अपनी चंद सांसों को...
शायद उसकी तपिश तुम्हारे अहम् को पिघला दे...
और नेस्तनाबूद कर दे मेरी जिद को...
जिसने हम दोनों को जीने ना दिया...
और जिसने उम्र को गुज़र जाने दिया ऐसे...
की जैसे रेत फिसल गयी हो मुठ्ठी से...
अर्चना...
Saturday, August 28, 2010
मेरी आशाएं...
अपने आँगन से कुछ निराशाएं क्यूंकि...
ख्वाब में ही सही कुछ आशाओं ने...
अपने आने की बात कही है...
हाँ उनके साथ कुछ पुरानी यादों को भी...
मैं बाहर का रास्ता दिखा दूँ क्यूंकि...
कब तक उन्हें मेहमान बना कर रखूंगी जबकि...
अब अतिथि देवो भव का ज़माना कबसे गुज़र गया है...
हाँ अब इस सच को स्वीकार करना ही होगा...
कि इस दुनिया में अहसास और जज़्बात की...
कोई कीमत नहीं है फिर भी...
इस दुनिया के बाज़ार में कुछ लोग बिना मोल बिकते है...
और हमे उनकी भीड़ में अपने आपको ढूँढना है...
और उन्ही कुछ आशाओं के साथ...
जो कभी भी ख़्वाबों में आ सकती हैक्यूंकि...
ख्वाब मेरे अपने है...
हाँ वही तो मेरे अपने है...
और हाँ आशायीं भी मेरी अपनी है...
और अब बस निराशाओं को पराया बनाना है...
सो सोच रही हूँ आज शाम ढलने तक ये काम कर ही दूँ...
क्यूँ कर दूँ ना...?
अर्चना
Tuesday, July 27, 2010
हाँ मैं जी लूंगी
तुमने तो कल शब् मुझे वो दर्द दे ही दिया...
कोई बात नहीं दर्द तो दर्द ही सही कुछ तो दिया है तुमने...
कुछ तो ऐसा है मेरे पास ऐसा जिसके सहारे...
मैं अपनी यादों की किश्तों से अपनी जिंदगी का क़र्ज़ उतार लूंगी...
हाँ मैं जी लूंगी...
सुनो तुम मेरी फिक्र ना करना क्योंकि फिक्र इंसान की दुश्मन है....
और मैं नहीं चाहती की मेरी कोई चीज़ तुम्हारी दुश्मन बने...
क्यूंकि मैं तो एकतरफा प्यार और दोस्ती की वो जिंदा मिसाल हूँ...
जिसे तुम याद करना ना चाहो बेशक...
लेकिन अपने ज़ेहन के पिंजरे में एक परिंदे की तरह मुझे कैद ज़रूर रखोगे...
और हाँ मैं उसी कैद का अहसास कर के तुम्हे याद कर लूंगी...
हाँ मैं जी लूंगी...
हाँ मैं जी लूंगी
अर्चना
Sunday, May 16, 2010
एक चाहत जीवन की
आ जाओ मेरी पनाहों में...
हाँ आ भी जाओ...
क्यूंकि मैंने तुम्हारी राहों में...
अपनी पलकों को बिछा दिया है ...
देखो अब राहों की उष्णता भी कम होने लगी है...
और हवाओं में भी कुछ नमी सी लगती है...
वो देखो उस मुक्त गगन ने भी ओढ़ लिया है श्याम आँचल...
क्यूंकि मैंने अपने नैनों में तुम्हारे लिए सावन सजा लिया है...
हाँ देखो ना वो अमावस की दुल्हन भी अब लरजने लगी उजालों से...
उसने तारों से अपना आँचल को सजा लिया है...
और भर दिया है असंख्य तारों से उन राहों को...
क्यूंकि मैंने अपने नैनों के दीपों को तुम्हारे लिए रोशन कर दिया है...
हाँ वो देखो सारा गुलशन भी अब महकने सा लगा है...
रात भी सज कर इतरा सी रही है...
हाँ वो चंदा भी शरमा कर बदलियों की ओंट में छिपने लगा है...
क्यूंकि तुम्हारे प्यार का काजल मैंने अपने नैनों में सजा लिया है...
हाँ आ भी जाओ मेरी पनाहों में...
क्यूंकि तुम्हारे लिए शूल नहीं मेरा प्यार है जीवन की वो ठंडी छाँव...
जिसके साये में तुम्हारी राह आसान हो जाएगी....
और मैं तुम्हे उस पर चलते देख कर थोडा और जी लूंगी...
अर्चना
Monday, April 26, 2010
मेरे मन का वो गुलमोहर
आज मेरे मन का वो गुलमोहर खामोश है...
क्यूंकि आज तुम मेरे अहसास...
मेरी रूह से दूर कहीं अपना बसेरा बसा चुके हो...
और मैं अपने तन में विरह की ज्वाला लिए ...
और मन को शांत बना ये सोचती रह गई...
की समय की नदी में क्यूँ बह गए...
यूँ मेरे सपने एकांत...
और मेरी आँखों में विरह के नीर भर...
उन तैरते सपनों को डुबो कर गए नितांत...
जो कभी तुमने मुझे दिखाए थे...
जानते हो अब ना इसं में छवियाँ है प्यार की...
ना है कोई अहसास...
क्यूंकि मन में चुप्पियाँ बो कर...
मैंने इन्हें दे दिया वनवास...
और अब मन की सारी सीपियों में...
नहीं बचा कोई मोती...
हाँ सच मुरझा गए है सारे गुल इस दिल के...
अब नहीं बची है इन में कोई प्रीती...
लेकिन फिर भी हंस कर मन तुम्हे कह रहा अलविदा...
और हाँ इसीलिए शायद मेरे मन का वो गुलमोहर...
खामोश सा खड़ा बुन रहा है सन्नाटा...
अर्चना...
जिंदगी समझौतों में ऐसे उलझी की...
सपनो से रिश्ता टूट गया...
आँख तो अब भी तरसती है लेकिन...
मेरे नज़ारों ने ही साथ छोड़ दिया...
घर का बोझ उठाने वाले...
बचपन की तक़दीर न पूछ ओ ज़माने ...
क्यूंकि इधर बच्चा घर से निकला काम के लिए...
उधर माँ ने उसका खिलौना तोड़ दिया...
हाँ किसको फ़ुर्सत इस दुनिया में...
जो कोई ग़म की कहानी पढ़े या सुने ...
तभी तो भटक गए है शब्द मेरे...
और कलम ने मेरा साथ छोड़ दिया...
हाँ कई मंज़र देखे मैंने इस दुनिया की भीड़ में लेकिन...
जब मेरे ही अशार उसने अपने नाम से बेचे...
तो मैंने भी अपना रोज़ा तोड़ दिया...
हाँ आज मैंने उसकी मोहब्बत का हर पैमाना तोड़ दिया...
अर्चना...
Sunday, April 25, 2010
सूरज ढलने को है लेकिन...
अब तक तू मुझे क्यूँ आज़मा रही है जिंदगी...
सुन ज़रा बता तो और कितने इम्तेहान बाकि है...
और कितने इल्ज़ाम बाकि है...
तो जिंदगी बेदर्द मुस्कुरा के बोली...
सुन जितनी तेरी उम्मीदें है...
जितने तेरे अहसास है...
जितने तेरे जज़्बात है...
जितने तेरे सपने है...
जितने तेरे अपने है...
जितना तेरा यकीं है...
जितना तुझमें प्यार है...
बस उतने ही इम्तेहान बाकि है...
उतने ही इलज़ाम बाकि है...
तो मैंने भी हंस कर उसे कहा...
सुन एक बात तू कहना भूल गई है शायद...
जितने मेरे हौसले है बुलंद...
उतने इम्तेहान और इलज़ाम है बाकि...
हाँ सुन आ आजमा ले मुझे...
क्यूंकि उम्मीद...
अहसास...
जज़्बात...
सपने...
अपने...
यकीं...
और प्यार के साथ...
कुछ हौसले मेरे अब भी है बाकि...
अर्चना...
Friday, April 23, 2010
हाँ सच इसकी अपनी सोच से ही अनबन है....
आवाजों से इसे परहेज़ हैं यारों...
सन्नाटा इसके लिए जैसे मधुबन है...
हाँ दुख को इसने ओढ़ रखा है यारों...
और खुशियाँ इसकी उतरन है...
हाँ जिसके खातिर मैं अपनों से लड़ी...
हाँ वही तो अब इसका हमदम है...
हाँ मेरा अपना मन ही मेरा दुश्मन हैं...
हाँ सच इसकी अपनी सोच से ही अनबन हैं...
अर्चना...
Tuesday, April 20, 2010
प्यार की शाश्वत दुनिया...
जहाँ हम दोनों भूल जाये एक दूसरे के फेंके हुए दर्द...
और चुभते हुए अहसासों को...
क्योंकि जीवन जीने का नाम है...
गुज़ारने का नहीं...
और वैसे भी हमने बहुत गुज़ार लिया इसे...
यूँ ही एक साथ रहते हुए...
पर एक दूसरे के बिना...
लेकिन अब आओ इसे फिर से जिएँ...
उस सपने को जीवन्त करने के लिए...
जहाँ तुम्हारी खुशबू से भीगे ख़त थे...
और जिन्हें पढ़ते-पढ़ते भीग जाते थे मेरे नैना...
और हाँ जहाँ हमारे तन और मन कभी मिलते न थे...
पर हम जीते थे, एक दूसरे के लिए...
क्यूंकि तब एक जज़्बा था प्यार का...
प्यार के अहसास का...
और जहाँ सिर्फ़ प्यार ही रह जाता था...
और घुल जाते थे सारे वो अहम, अभिमान हमारे ...
जो आज हमारे बीच दीवार बन गए हैं...
इसलिए आओ चलें फिर एक बार फिर....
उस प्यार की दुनिया में...
क्यूंकि सुना है की प्यार कभी मरता नहीं...
मरते तो जिस्म है...
और ज़िंदा रहते हैं यही प्यार के प्यारे अहसास....
हाँ प्रिये प्यार और प्यार के इसी अहसास का नाम ही तो जीवन है...
और ये जीवन तब भी चलता है जब हम नहीं होते...
तो आओ ना फिर एक बार चलें...
उस शाश्वत जीवन की ओर...
अर्चना...
Thursday, April 15, 2010
निशब्द प्रेम
Thursday, April 8, 2010
कुछ पल का साथ
कुछ नया कर दिखाने का जोश...
रोज़ नए मायने तलाशती जिंदगी...
रोज़ नए आयाम तलाशती हसरतें...
आपने आप में खोये कुछ अरमान मेरे...
अपने आप को तलाशते वो प्यारे से अहसास...
और हाँ नींद से बैर करती वो कुछ नाकाम कोशिशें...
और वो मुझे चिढ़ाती हुयी तुम्हारी कुछ हसीं यादें...
आज वक्त के साथ बहुत दूर जा रही है...
और मुझसे ये कह रही है की...
ये इतनी भागम भाग क्यूँ है...
आओ कुछ पल साथ बैठ कर...
काम का बोझ कुछ हल्का कर लें...
क्यूंकि ये वक्त छूट रहा हाथों से...
और हम भी दूर जा रहे है तुमसे...
और जानते हो ऐसा कह कर...
वो सब खिलखिलाकर हंस दिए थे...
और साथ मैं हंस पड़ी थी...
ये सोच कर की चलो तुम्हारे सिवा कोई तो है...
जो मुझे कुछ पल साथ बैठने की बात कर रहा है...
अर्चना...
Thursday, April 1, 2010
पगली का प्यार
अच्छा लगने लगा है ये जहाँ...
ये कुदरत...ये कायनात...
और दुश्मनों का भी वो रुखा सा बर्ताव भी ....
हां आग उगलता सा वो सूरज भी भाने लगा है...
और वो टूटी-फूटी डूबती सी नाव भी मन को...
एक जहाज़ का आभास देती है ...
और हाँ वो वृक्षों की पत्तियों पर...
सुखी सी कुरकुरी पत्तियाँ भी मन को बहार सी लगती है....
साथ ही भाने लगी है वो पतझड़ की अकड़ी सी टहनियां...
जिन पर अब कोई पंछी नहीं बैठता...
और हाँ वो नटखट सी नदी का अलबेला सा उफान...
जिस से डर कर अब इसके किनारों पर कोई नहीं आता....
अरे हाँ वो गर्मी की हवा का एक झोंका भी बड़ी ठंडक दे जाता है...
और साथ ही मन को भाता है...
वो चहकते से पंछियों का एक दम से चुप हो जाना...
और मेरे बारे में ये सोचना...
की इस पगली का प्यार भी कितना अजीब है...
इसे वो भी मन को भाता है...
जो दुनिया की नज़र में मनभावन नहीं है ...
अर्चना...
Tuesday, March 30, 2010
इंतज़ार
जीवन का क्या है...
जीवन तो यूँ भी चलता रहेगा...
फिर चाहे मैं तुम्हारे जीवन में रहू या ना रहूँ...
क्या फर्क पड़ता है...
हाँ जानती हूँ एक दिन मैं नहीं रहूंगी...
तब भी सब कुछ वैसा ही होगा....
जैसा अब है...
वैसे ही उगेगा सूरज...
वैसे ही निकलेगा चाँद...
वैसे ही बारिश की बूँदें भिगोएँगी...
तुम्हारे तन-मन को...
और वैसे ही पेड़ों के झुरमुट में...
अचानक खिल उठेंगे कई जूही के फूल...
और गोधूलि में टिमटिमाएगी दिए की एक लौ...
और हाँ तारे भी वैसे ही गुनगुनाएंगे विरह के गीत...
जैसे आज मैं गुनगुनाती हूँ...
लोग काम से घर लौटेंगे...
हाँ तुम भी लौटोगे...
लेकिन मैं नहीं मिलूंगी तुम्हे...
और ना तुम्हारी पलकों पर मेरे होंठों की छुअन होगी...
और हाँ नहीं होंगी इंतज़ार की खुमारी से भरी मेरी आँखें भी लेकिन...
एक स्मृति बची रह जाएगी मेरी...
और वही तुम्हे बताएगी की...
मैंने किस शिद्दत से तुम्हारा इंतज़ार किया है...
वो इंतज़ार जिसे तुमने महज़ एक इंतज़ार माना...
और मैंने उस में अपनी सारी उम्र तमाम कर दी...
अर्चना...
Tuesday, March 23, 2010
ना जाने क्यूँ...?
मेरी उनींदी सी बोझिल आँखों में...
तेरे सपनों के रेशमी धागे...
उलझते जाते हैं...
और धीरे-धीरे...
मैं पाती हूँ अपने आपको...
तेरे उस प्यार के जाल में....
जो तूने अनजाने ही बुन दिया था...
उस वक़्त...
जब जानती नहीं थी की प्यार क्या है...?
और अब जब जान गई हूँ...
तो ये रेशमी जाल सुहाना सा लगता है...
ना जाने क्यूँ...?
Sunday, March 21, 2010
टूटे रिश्तों की आवाज़
ये सारी आवाजों को अकेले ताउम्र सुनता रहता है...अर्चना...
Wednesday, March 17, 2010
अर्चना...
Sunday, March 14, 2010
एक पुरानी हंसी...
Friday, March 12, 2010
मेरा उन्मादी मन...
ये सहज और सरल सा मन मेरा...
ना जाने क्यूं आज बड़ा उन्मादी सा हो रहा है...?
जानते हो ये पगला मुझसे हौले से क्या कह रहा है ...
कह रहा है...
सुन बहुत हुआ जीवन बलिदान...
अब थोडा सा वक़्त खुद को दे...
और कर ले खुद से खुद की पहचान...
ताकि कल को जब सारे जाने पहचाने चले जाए...
तो तू खुद को अजनबी सा ना पाए...
और सुन...
बहुत हुई दूसरों से सबसे मुहब्बत...
अब थोड़ी सी मुहब्बत खुद से भी कर ले...
ताकि कल को ऐसा ना हो की...
जब सबकी चाहत ख़त्म हो जाये...
तो तू इस लफ्ज़-ए-मोहब्बत को समझ ना पाए...
हाँ मेरी बात को मान...
और जो मैं कह रहा हूँ वही कर...
सुन तुझे इजाज़त है...
जा तू अपने लिए जी ले कुछ लम्हे...
वरना कल ऐसा ना हो की...
रेत की तरह फिसल जाये ये जिंदगी...
और तू अपने अहसास...
अपने जज़्बात का दामन थामे...
उस लम्हे के लिए तरसे...जो वक़्त की शाख पर...
ना जाने कबसे तेरा इंतज़ार कर रहा है...
जा अपना ले उसे...
वरना गर तेरी शक्ल बदल गई...
तो कमबख्त ये आईना...
जो आज तेरी सूरत पर इतराता है...
ये भी तुझसे तेरी पहचान मांगेगा...
अर्चना...
Thursday, March 11, 2010
Monday, March 8, 2010
Sunday, March 7, 2010
Friday, March 5, 2010
एक सवाल
Thursday, March 4, 2010
Tuesday, March 2, 2010
Sunday, February 28, 2010
Friday, February 26, 2010
Wednesday, February 24, 2010
Tuesday, February 23, 2010
Sunday, February 21, 2010
Friday, February 19, 2010
एक मीठी सी याद
Thursday, February 18, 2010
बीते लम्हों का हिसाब
Wednesday, February 17, 2010
एक भरपूर जिंदगी
Tuesday, February 16, 2010
मेरी जिंदगी ने आज एक अहम् फैसला लिया...उसने आज मुझे हर ग़म से आज़ाद किया...जिसकी ख़ुशी ने मेरे लिए आज पलकों का एक कोना ख़ाली किया...और उसे अश्कों से फ़िर भर दिया...और धीरे से मेरे कान में कहा...की जाओ मैंने तुम्हे हर उस जुर्म से बरी कर दिया...जो तुमने मुझे हँसाने के लिए किये थे...अब तुम आज़ाद हो सदा के लिए....जाओ जिधर तुम्हारा जी चाहे...चाहो तो तुम जागो...या फिर सो जाओ...या फिर खिलखिला कर मुझ पर हंसो...मैं उफ़ तक नहीं करुँगी...क्यूंकि मेरा दामन अब रीता है...और अब मेरे अश्कों का सैलाब सूख गया है...वजह...वजह बस इतनी सी है की अब मैंने ख़्वाब देखना बंद कर दिया है...और मेरे अरमानो के कोमल पंख लिए मेरा वजूद का भोला सा पंछी...हकीकत की सख्त धरातल पर उतर आया है...अर्चना...
Monday, February 15, 2010
कुछ मीठे से सवाल
Saturday, February 13, 2010
Wednesday, February 10, 2010
माँ नर्मदा को मेरा नमन....
Tuesday, February 9, 2010
Monday, February 8, 2010
Sunday, February 7, 2010
Saturday, February 6, 2010
Friday, February 5, 2010
और उसके अधूरेपन की वजह तुम हो...तुम जो चित्रकार थे मेरे जीवन के लेकिन उस में वो रंग ना भर सके...जिस से मेरी तस्वीर पूरी हो सके...लेकिन मैं हार नहीं मानूंगी...मैं उस अधूरी तस्वीर को पूरा करुँगी...हाँ मैं उस में सूरज़ का तेज़ भरुंगी...चाँद सी शीतलता से सजाउंगी...
पानी की निर्मलता से सहेजूंगी...और धरती की सहनशीलता से दूंगी....
फूलों सी कोमलता से करुँगी इसका श्रृंगार...भरुंगी कुछ रंग तितलियों से,
नीले मुक्त गगन से लूंगी थोडा सा विस्तार...और हाँ थोड़ी सी सिन्दूरी आभा लूंगी ढलती शाम से...
सोचती हूँ थोड़ी चमक ले लूँ सितारोंसे...और अंधेरों में भी टिमटिमाने की अदा जुगनुओं से ....थोड़ी सी हरियाली ले लूं खेतों की....झरने सी चंचलता ले लूं...और ले लूं नदी का वो ठहरापन तो क्या बात है .... अरे हाँ पहाड़ों से ले लूं स्थिरता...और ले लूं हवाओं की थोड़ी सी नमी...थोड़ी आग की तपिश भी ले लूं...और थोड़ी हरे पेड़ों की छाँव भी...और सजा लूं इनके रंगों से अपने वजूद की ज़मी को जो तुम्हारे दर्द से बेरंग हो गई है....और तब शायद ऐसा ना कह सकूं की यूँ तो कहने को जीवन पूरा हो गया लेकिन मेरे वजूद की तस्वीर अभी अधूरी है....अर्चना...